________________
सप्तदशः
__४५६ देवों ने, देवं = प्रभु की, प्रतुष्टुवुः = स्तुति की, (त्वं = तुम), धन्यः = धन्य, असि = हो, त्वां = तुम्हारे, विना = विना, अत्र = यहाँ, एवं - इस प्रकार, विवेचनं = भेद ज्ञान परक विचार
को. क; - कौन, कुर्यात् = करे। श्लोकार्थ – तभी वहाँ उपस्थित हुये लौकन्तिक देवों ने प्रभु की स्तुति
की और कहा हे प्रभु! तुम धन्य हो तुम्हारे सिवा यहाँ और ___ कौन है जो ऐसा भेदविज्ञान परक विचार करे। इन्द्रस्तदैव सम्प्राप्तस्तदानी लां प्रभामयीम् । वैजयन्ती समारूह्य शिबिकां भास्करद्युतिः ।।४३|| सहेतुकवनं रम्यं प्राप देवगणस्तुतः । माघे शुक्लदशम्यां स रेवत्यां सत्तपोवने ।।४४।। सहस्रभूमिपैः सार्धं दीक्षां धृत्वा स्थमानसे ।
मनःपर्ययनामानं प्रबोधं लब्धवान् प्रभुः ।।४५।। अन्वयार्थ – तदैव :- तब ही, इन्द्रः = इन्द्र, सम्प्राप्तः = आ पहुँचा,
देवगणस्तुतः -- देवताओं के समूह से स्तुत, (च = और), भास्करद्युतिः = सूर्य के समान कान्ति वाले प्रभु, (अपि = भी), तदानी = उस ही समय, प्रगामी = कान्तियुक्त, वैजयन्ती . वैजयन्ती नामक, तां - उस. पालकी = पालकी पर, समारुह्य = चढ़कर, रम्यं = रमणीय, सहेतुकवनं = सहेतुकवन को, प्राप = प्राप्त हो गये, सः = उन, प्रभुः = प्रभु ने, माघे - माघ मास में, शुक्लदशम्यां = शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन, रेवत्यां = रेवती नक्षत्र में, सत्तपोवने = शुम तपोवन में, सहस्रभूमिपैः = एक हजार राजाओं के, साध = साथ, दीक्षां = मुनि दीक्षा को, धृत्वा = धारण करके, स्वमानसे = अपने मानस में, मनःपर्ययनामानं = मनःपर्यय नामक, प्रबोध
= ज्ञान को, लब्धवान् = प्राप्त कर लिया। श्लोकार्थ - तभी इन्द्र वहाँ आ गया तथा सूर्य के समान कान्ति वाले और
देवों के समूह से स्तुति किये जाते हुये प्रमु भी उसी समय कान्तिमयी वैजयन्ती नामक पालकी पर चढ़कर रमणीय