SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 509
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६० श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य सहेतुक वन में चले गये। उस शुभ तपोवन में माघ सुदी दशमी को रेवती नक्षत्र में उन प्रभु ने एक हजार राजाओं के साथ मुनिदीक्षा धारण करके अपने अंतरङ्ग में मनःपर्यय नामक ज्ञान प्राप्त कर लिया। द्वितीयदिवसे चक्रपुरे भिक्षार्थमागतः । अपराजितभूपेन भोजितः श्रद्धया मुदा।।४६।। पञ्चाश्चर्येणेक्षणात्तेन हृष्टेन बहुवन्दितः । कृपाईयादिशा वीक्ष्य तं पुनः प्राप्य तद्वनम् ।।४७।। छद्मस्थः षोडशाब्दं स तप उग्रं समाचरन् । चतुर्घातीनि संहृत्य सुतीक्ष्णेन तपोऽसिना ।।४८।। द्वादश्यां कार्तिके मासे शुक्लपक्षे जगत्प्रभुः। रसालतरूमूले च केवलज्ञानमाप्तवान् ।।४६ ।। अन्ययार्थ – द्वितीयदिवसे = दसरे दिन, (सः - वह गिराज). भिक्षार्थ = भिक्षा के लिये, चक्रपुर = चक्रपुर नगर में, आगतः = आये. (तत्र - वहाँ). मुदा = प्रसन्नचित्त, अपराजितभूपेन = अपराजित नामक राजा द्वारा, श्रद्धया = श्रद्धा के साथ, सः = वह. गोजितः = भोजन कराये गये, च = और, पञ्चाश्चर्येणेक्षणात् = पाँच आश्चर्यों को देखने से, हृष्टेन = हर्षित. तेन = उस राजा द्वारा, बहवन्दितः = चार बार प्रणाम किये गये. (सः = उन्होंने), कृपाया = कृपा से संसिक्त आई, दिशा = दृष्टि से, तं = उस राजा को. वीक्ष्य = देखकर, पुनः = दुबारा, तद्वनं = उस वन को, प्राप्य = प्राप्त करके. षोडशाब्दं = सोलह वर्ष तक, उग्रं = कठिन, तपः = तपश्चरण का, समाचरन् = सम्यक आचरण करते हुये. छद्मस्थः = अल्पज्ञानी, सः = उन, जगत्प्रभुः -- मुनिराज ने. सुतीक्ष्णेन = अत्यंत पैनी, तपोऽसिना = तपश्चरण रूपी तलवार से. चतुर्घातीनि = चार घातिया कर्मों का, संहृत्य = संहार करके. कार्तिक मासे = कार्तिक माह में, शुक्लपक्षे = शुक्लपक्ष में, द्वादश्यां = द्वादशी के दिन, रसालतरूमूले = रसाल अर्थात्
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy