________________
४E८
श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य नृपश्रिया = राजलक्ष्मी के कारण, मोहजः = मोह से जनित,
मदः = अहंकार, न = नहीं, अभूत् = हुआ। श्लोकार्थ - उसके बाद प्रभु ने पिता के राज्य को प्राप्त किया और चक्रवर्ती
हो गये | चक्रवर्ती होने पर भी उनके राजलक्ष्मी के कारण
होने वाला मोह से जनित होने वाला अहंकार नहीं हुआ। एकदायं नृपाराध्यः चक्रवर्ती सुसौधगः ।
तत्र पयोधरघटामधे कमनीयां च ददर्श हि।।४।। अन्वयार्थ – एकदा = एक दि। = या माध्यः :: रागा. से
आराधित, चक्रवर्ती = चक्रवर्ती, सुसौधगः = महल के ऊपर बैठे हुये, आसीत :- थे, च = और. तत्र = वहाँ. (सः = उन्होंने), अभ्रे - आकाश में, हि = ही, कमनीयां = सुन्दर अच्छी लगने
वाली, पयोधरघटा = बादलों की घटा को, ददर्श = देखा। श्लोकार्थ - एक दिन यह चक्रवर्ती राजाओं से आराधित होता हुआ महल
पर बैठा था वहाँ उसने आकाश में ही बादलों की सुन्दर
कमनीय घटा को देखा। तत्क्षणादेव खे लीनां दृष्ट्वा तां राजभोगतः ।
विरक्तहृदयो भूत्वा तपस्सारममन्यत ।।४१।। अन्वयार्थ तरक्षणात् = उस समय. एव = ही, ता = उस मेघों की बदली
को. खे = आकाश में, लीनां = विलीन होती, दृष्ट्वा = देखकर, राजभोगतः = राज्य सम्बन्धी भोगों से, विरक्तहृदयः = विरक्त मन वाला, भूत्वा = होकर, तपः = तपश्चरण को,
सारं = सारभूत, अमन्यत = मानने लगा। श्लोकार्थ - उसी समय वह राजा उस सुन्दर बदली को आकाश में ही
विलीन होती देखकर राज्य के भोगों से विरक्त मन होकर
तपश्चरण को सारभूत मानने लगा। तदा सारस्वतास्तत्र प्राप्ता देवं प्रतुष्टुयुः ।
धन्योसि त्वां विना कोऽत्र कुर्यादेवं विवेचनम् ।।४।। अन्वयार्थ – तदा = तभी, तत्र = वहाँ. प्राप्ताः = उपस्थित हुये, लौकान्तिक