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सप्तदश
राज्यं त्यक्त्वा सुधर्मात्मा संयुतो बहुभूमिपैः । दीक्षां जग्राह मोहाख्यग्रहसम्मोचनोचिताम् ॥ ११३ ॥ |
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हुये अर्थात् पूजित, ज्ञानी, परम तपस्वी तीर्थंकर अर्हन्नन्दन प्राप्त हुये- इस प्रकार उनको आया हुआ सुनकर वह राजा आसन से सहसा उठकर और आश्चर्य से पुनः हर्ष से रोमाञ्चित शरीर राजा वन में गया। वहाँ उसने मुनिराज को प्रणाम करके विनय से सार्थक धर्म विषयों को पूछा तथा उनके मुख से उन धर्मों को सुनकर वह राजा संसार से विरक्त हो
गया।
अन्वयार्थ - बहुभूमिपैः = बहुत राजाओं से, संयुक्तः = युक्त, सुधर्मात्मा - धर्मपालक राजा ने, राज्यं = राज्य को, त्यक्त्वा = छोड़कर, मोहाख्यग्रहसम्मोचनोचिताम् = मोह नामक ग्रह या पिशाच
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को छोडने के उचित अर्थात् योग्य दो
मुनिदीक्षा को
जग्राह = ग्रहण कर लिया।
'लोकार्थ
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अनेक राजाओं से युक्त उस धर्मात्मा राजा ने राज्य छोड़कर मोहरूपी पिशाच को छोड़ने में समर्थ जैनेश्वरी मुनिदीक्षा को ग्रहण कर लिया।
एकादशाङ्गविद् भूत्वा पूर्वाश्चापि चतुर्दश । सन्धार्य ज्ञानवान् तद्वत् शीलवान् सुविचारवान् ||१४|| षडुत्तरदशोक्तानि कारणानि विभाख्य सः । बबन्ध तीर्थकृद्गोत्रं तीर्थकृद्गोत्रं तपसोग्रेण दीपितः ||१५|| अन्वयार्थ – एकादशाङ्गविद् = ग्यारह अङ्गों के जानकार, भूत्वा = होकर, च = और, तद्वत् = वैसे ही, चतुर्दश = चौदह, पूर्वान् पूर्वी को; सन्धार्य धारण करके ज्ञानवान् = ज्ञानी, शीलवान् = चारित्रधारी सुविचारवान् = सुविचारक, उग्रेण = कठिन, तपसा तपश्चरण से, दीपितः सुशोभित सः = उन मुनिराज ने, षडुत्तरदशोक्तानि - सोलह शास्त्रोक्त, कारणानि = कारणों को, विभाव्य अच्छी तरह से भाकर, तीर्थकृत् = तीर्थङ्कर, गोत्रं = महापुण्य को, बबन्ध = बाँधा |
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