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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य श्लोकार्थ - ग्यारह अगों के जानकार होकर और वैसे ही चौदह पूर्वो
को धारण करके ज्ञानी, चारित्रधारी सुविचारक और कठिन तपश्चरण से सुशोभित उन मुनिराज ने सोलहकारण
भावनाओं को भाकर तीर्थकर पुण्य प्रकृति को बांध लिया। ततोऽन्त्ये स्वायुषः प्राज्ञः धृत्वा संन्यासमुत्तमम् ।
जही तपःशुचितर्नु स्वास्थिधर्मावशेषताम् ।।१६।। अन्वयार्थ – ततः = उसके बाद, स्वायुषः = अपनी आयु के. अन्त्ये = अंतिम
समय में, प्राज्ञः = बुद्धिमान मुनिराज ने. उत्तम = उत्तम, संन्यासं - संन्यासमरण की विधि को, धृत्वा = धारण करके, स्वास्थिचमार्चशेषताम् = हड्डी-चमड़ा मात्र शेष, तपःशुचितनुं
= तपस्या से पवित्र शरीर को, जही - छोड़ दिया। श्लोकार्थ – उसके बाद आपनी आयु के अंतिम समय में उन बुद्धिमान
मनिराज ने उत्तम संन्यास को धारण करके हड्डी-चमड़ा
ही शेष बचा है जिसमें तपःपूत शरीर को छोड़ दिया। ततः सर्वार्थसिद्धिं च सम्प्राप्य स्वतपोबलात् ।
अहमिन्द्रपदं लेभे दुर्लभं देवदानवैः ।।१७।। अन्वयार्थ – च = और, ततः = उसके बाद, सर्वार्थसिद्धिं = सर्वार्थसिद्धि
को, सम्प्राप्य = प्राप्त करके, स्वतपोबलात् = अपने तपश्चरण के बल से, देवदानवैः = देव और दानवों द्वारा, दुर्लभ = कठिनायी से प्राप्त किये जाने योग्य. अहमिन्द्रपदं = अहमिन्द्र
पद को, लेमे = प्राप्त कर लिया। श्लोकार्थ ~ और उसके बाद अर्थात् शरीर छूट जाने पर उन मुनिराज
ने सर्वार्थसिद्धि को पाकर वहाँ देव दानवों द्वारा जिसे पाना
दुर्लभ है ऐसे अहमिन्द्र पद को प्राप्त कर लिया। आयुश्चात्राभवत्तस्य त्रित्रिंशत्सागरोपमम् । तत्रोक्ताहारनिश्वासः सार्द्धिश्च सः हर्षतः ।।१८।। अनन्तसुखभुक् सिद्धध्यानसलीनमानसः । षट्कमासायुरभवत् तत्र देवगणैः स्तुतः ।।१६।।