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________________ १७८ श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य अन्वयार्थ - तेन = प्रजाजनों के आशीर्वाद से, महीभर्तुः = राजा, धनपतिः = धनपति का, प्रजानेत्राभिनन्दितं = प्रजा नेत्रों को आनन्दित करने वाला, राज्यं = राज्य, तथा = उस प्रकार. अवर्धत् = वृद्धि को प्राप्त हुआ, यथा = जैसे, निशापतेः = चन्द्रमा का, बिम्ब = बिम्ब, (वर्धते = वृद्धि को प्राप्त होता है)। श्लोकार्थ' - प्रजाजनों के आशीर्वाद से राजा धनपति का राज्य जो प्रजा के नेत्रों को आनन्दित करने वाला था उसी प्रकार वृद्धिंगत हुआ जैसे चन्द्रमा का बिम्ब प्रतिदिन वृद्धिंगत होता है। एकदानन्दविपिने तीर्थकृत्तपसन्निधिः । नाम्नार्हन्नन्दनः प्राप ज्ञानवान् भव्ासेवितः !!१!! श्रुत्वा तमागतं राजा सहसोत्थाय घासनात् । ससम्भ्रमं पुनस्तत्र प्रीत्युत्पुलकितः गतः ।।११।। अभिवन्द्य मुनि प्रेम्णा धर्मान् पपृच्छ सार्थकान् । श्रुत्वा तान् तन्मुखादाजा विरक्तस्संसृतेरभूत् ।।१२।। अन्वयार्थ - एकदा = एक दिन, आनन्दविपिने = आनंद नामक वन में, ज्ञानवान् = ज्ञानी. भव्यसेवितः = भव्य जनों द्वारा पूजित, तपसन्निधिः = परम तपस्वी, नाम्ना = नाम से, अर्हन्नन्दनः = अर्हन्नन्दन, तीर्थकृत = तीर्थङ्कर, प्राप = प्राप्त हुये अर्थात् आये हुये हैं, तम् = उनको, आगतं = आया हुआ, श्रुत्वा = सुनकर, राजा = राजा, आसनात् = आसन से, सहसा = आकस्मिक रूप से, उत्थाय = उठकर, च = और, पुनः - फिर से, ससम्भ्रम = आश्चर्य के साथ, प्रीत्युत्पुलकित: = हर्ष से रोमाञ्चित शरीर, राजा = वह राजा, तन्त्र = वहाँ वन में, गतः = गया, मुनिं = मुनिराज को, अभिवन्द्य = प्रणाम करके, प्रेम्णा = प्रेम से अर्थात् विनय से, सार्थकान् = सार्थक, उपयोगी, धर्मान् = धर्मों को, पपृच्छ - पूछा, तन्मुखात् = उनके मुख से, तान = उन धर्मों को, श्रुत्वा = सुनकर, राजा = राजा, संसृतेः = संसार से, विरक्तः = विरक्त, अभूत् = हो गये। श्लोकार्थ – एक दिन आनंद नामक वन में भव्यजनों से सेवा किये जाते ।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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