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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य = मोक्ष को, गतः -- गये, (च = और), तत्पश्चात् = उनके, यतः - जिस कूट से, एव = ही, यत्प्रणमनात = जिसको प्रणाम करने से, बहवः = बहुत सारे भव्य जीव, संसारवारांनिधि = संसार सागर को, तीवा = तैरकर, सिद्धिं = सिद्धि को, गताः = गये, तं = उस, ज्ञानधरं = ज्ञानधर कूट को, (अहं = मैं), सदा = हमेशा. स्तुति से प्रणाम करता
हूं. अर्थात् उनकी स्तुति करता हूं। श्लोकार्थ – अपने तपश्चरण से अपने में पवित्र केवलज्ञान को प्राप्त करके
जगत् के कूट पर स्थित होकर सारे कर्मों का नाश करके मोक्ष को प्राप्त किया और उनके पश्चात् जिस कूट से, जिसकूट को प्रणाम करने से बहुत सारे भव्य जीव संसार सागर को तैर कर सिद्धि को चले गये उस ज्ञानधर नामक
कूट की मैं सदैव स्तुति करता हूं। [इति दीक्षितब्रह्मनेमिदत्तविरचिते श्रीसम्मेदशैलमाहात्म्ये तीर्थङ्कर कुन्थुनाथवृतान्तपुरस्सरं ज्ञानधरकूटवर्णनं
नाम षोडशमोऽध्यायः समाप्तः।) (इस प्रकार दीक्षितब्रह्म मिदत्तविरचित श्रीसम्मेदशिखर माहात्म्य नामक काव्य में तीर्थङ्कर कुन्थुनाथ के वृतान्त को उजागर करते हुये ज्ञानधरकूट का वर्णन करने वाला
सोलहवां अध्याय समाप्त हुआ।}