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________________ वष्ठदशः ४७३ अन्वयार्थ - एकस्य = एक, कटस्य = कट का. इत्थं = ऐसा. फलं - फल, (आस्ते = है), तत् = तो, सर्वज = सारी कूटों की वन्दना से उत्पन्न, फलं = फल, जिनेन्द्र = जिनेन्द्र भगवान ही, जानाति = जानते हैं, भुवि = पृथ्वी पर, अन्यः = अन्य कोई, लघुमतिः = अल्पबुद्धि. न = नहीं। सर्वकूटाभिवन्दनात् = सारी कूटों की वन्दना से, यत्फलं = जो फल, यथा = जिस प्रकार या जैसा, (मया = मेरे द्वारा), श्रुतं = सुना, तत्फलं = उस फल को, तथा = उसी प्रकार या वैसा ही, उक्तं = कहा गया. (वस्तुतः = वास्तव में), यत्फलं :- जो फल, (अस्ति = है), तत्फलं = वह फल, सत्यं - सचमुच. प्राप्यते = प्राप्त किया जाता है. (किन्तु = किन्तु), वाग्बलात् = वाणी के बल से, (वक्तुं = कहा), न = नहीं, शक्यते = जा सकता है। श्लोकार्थ – एक कूट की वन्दना करने का जब ऐसा फल है तो सारी कूटों की वन्दना से उत्पन्न होने वाला फल जिनेन्द्र भगवान ही जानते हैं पृथ्वी अन्य कोई भी अल्पबुद्धि नहीं। मेरे द्वारा तो सारी कूटों की वन्दना का जो फल जैसा सुना गया है वैसा ही कह दिया गया है। वस्तुतः वो फल है वह सचमुच में प्राप्त किया जाता है किन्तु वाणी के बल से उसे कहा नहीं जा सकता है। प्राप्यान्तः शुचिकेवलं स्वतपसा कृत्वा क्षयं कर्मणाम्। स्थित्या यत्र जगत्पतिः शियपदं श्रीकुन्थुनाथो गतः ।। तत्पश्चाद्यत एव यत्प्रणमनात्संसारवारांनिधिम् । ती| ज्ञानधरं गताश्च बहवः सिद्धिं तमीड़े सदा । ७०|| अन्वयार्थ .. स्वसपसा - अपने तपश्चरण से, अन्तः = अन्तरङ्ग में, शुचिकेवलं - पवित्र केवलज्ञान को प्राप्य = प्राप्त करके, जगत्पतिः = जगत् के स्वामी, श्रीकुन्थुनाथः -- तीर्थङ्कर प्रभु कुन्थुनाथ, यत्र = जिस ज्ञानधर कूट पर, स्थित्वा = ठहरकर, कर्मणां = कर्मों का, क्षयं = नाश, कृत्वा = करके, शिवपदं
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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