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________________ ४७२ श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य भव्यैस्सह तपोदीक्षां गृहीत्वा तप आचरन् । धातिकर्माणि सर्वाणि दग्ध्या घोरं तपोऽग्निना ।।६६।। केवलज्ञानसम्पन्नः शुक्लध्यानप्रयोगतः । मुनिः सोमधरो मुक्तिपदं प्राप सुदुर्लभम् ।।६७।। अन्वयार्थ – तत्र = उस सम्मेद पर्वत पर, ज्ञानधरं = ज्ञानधर नामक, फूट = फूट का. अभिवन्द्य = प्रणाम करके, च = और, समर्थ्य = अच्छी तरह से पूजकर, एकार्बुदचतुर्युक्ताऽशीतिकोटिप्रमाणितैः = एक अरब चौरासी करोड प्रमाण, भव्यैःभव्यों के, सह = साथ, तपोदीक्षां - तप,श्चरण के लिये मुनिदीक्षा को. गृहीत्वा = ग्रहण करके, तपः = तपश्चरण, आचरन् = आचरते हुये अर्थात् करते हुये. घोर तपोऽग्निना = घोर तपश्चरण स्वरूप अग्नि से. सर्वाणि = सारे, घातिकर्माणि = घातिकर्मों को, दग्ध्वा = जलाकर, केवलज्ञानसमान्नः = केवलज्ञान से सम्पन्न होते अर्थात केवलज्ञानी होते हुये, शुक्लध्यान प्रयोगतः = शुक्लध्यान के प्रयोग से, मुनिः = मुनिराज. सोमधरः = सोमधर ने, सुदुर्लभम् = सुनिश्चित दुर्लभ, मुक्तिपदं = मोक्ष पद को, प्राप = प्राप्त कर लिया। श्लोकार्थ . उस सम्मेदशिखर पर्वत पर ज्ञानधर नामक कूट को प्रणाम करके और अच्छी तरह से उसकी पूजा करके एक अरब चौरासी करोड़ संख्या प्रमाण भव्यजनों के साथ तपश्चरण का आचरण करते हुये घोर तपश्चरण रूप अग्नि से सारे घातिया कर्मों को जलाकर केवलज्ञानी होते हुये शुक्लध्यान के प्रयोग से उन मुनिराज सोमधर ने जिसे पाना निश्चित ही दुर्लभ है ऐसे मोक्ष पद को प्राप्त कर लिया। इत्थमेकस्य कूटस्य फलं तत्सर्वज फलम् । जिनेन्द्र एव जानाति नान्यो लघुमति यि ।।६८ ।। यथा श्रुतं तथा चोक्तं सर्वफूटाभिवन्दनात् । यत्फलं तत्फलं सत्यं प्राप्यते नैव याग्बलात् ।।६६ ।।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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