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प्रथमा
स्वस्वाधिकारसन्दीप्ताः = अपने-अपने अधिकार से उद्दीप्त अर्थात् जागरूक. द्वादशकोष्ठगाः = बारहों कोठों में स्थित
लोग, प्रोक्ताः = कहे गये हैं। श्लोकार्थ - समवसरण के बारह कोठों में अपने-अपने अधिकार व
सामर्थ्य से जागृत जो लोग भगवान् को अच्छी तरह देखने-निहारने के उत्सव में बैठे हुये श्रोता गण या दर्शक गण जैसे बताये गये हैं वह क्रम-व्यवस्था इस प्रकार है - पहले कोठे में सभी गणधर और मुनिवृन्द, दूसरे कोटे में कल्पवासिनी देवियाँ, तीसरे कोठे में आर्यिकायें और राजादि की पत्नियाँ, चौथे कोठे में ज्योतिषी देवियों, पांचवें कोठे में व्यन्तरदेवियों, छठवें कोढे में भवनवासिनी देवियाँ, सांतवें कोटे में भवनवासी देव, आठवें कोठे में व्यन्तरदेव, नवमें कोठे में ज्योतिषी देव, दसवें कोठे में कल्पवासी वैमानिक देव, 'ग्यारहवें कोठे में मनुष्य और बारहवें कोठे में सभी तिर्यञ्च
जीव।
ततः श्रीमण्डपो नानाजातिरत्नविनिर्मितः । तन्मध्ये सुविचित्रं हि पीठमस्ति त्रिमेखलम् ।।१२।। तस्योपर्यन्तरिक्षे स भगवांश्चतुरगुलः । विराजते चात्यर्थं महावीरो दयानिधिः ||६३।। अन्वयार्थ - ततः = द्वादश कोठों से आगे, नानाजातिरत्नविनिर्मितः =
अनेक जाति के रत्नों से निर्मित किया गया, श्रीमण्डपः = श्रीमण्डप. (भवति = होता है), तन्मध्ये = उस श्रीमण्डप के बीच में, सुविचित्रं = अत्यंत सुन्दर, त्रिमखलम् = तीन मेखलाओं वाली, पीठं सिंहासन, अस्ति = हेाता है, हि = ही, तस्य = उस पीठ के, उपरि = ऊपर, अन्तरिक्षे = आकाश में, चतुरङ्गुलः = चार अङ्गुल ऊँचाई वाले, दयानिधिः = करूणासागर दयानिधान. स: = वह. भगवान् = भगवान्, महावीर = महावीर स्वामी, अत्यर्थ = अति श्रेष्ठ तत्त्व को