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________________ ४६२ श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य राज्यं सः पैतृकं प्राप्य चाथ तारूण्यदीपितः । चक्रवर्त्यभवद् भूपो जितः सर्वविपक्षकं ।।३४।। अन्वयार्थ – अथ च = और इसके बाद. पैतृक = पिता से प्राप्त, राज्यं = राज्य को प्राप्य :- प्राप्त करके, तारूण्यदीपितः - तरूणाई से सुशोभित. सः - वह प्रभु कुन्थुनाथ. सर्वविपक्षकं = सारे विपक्ष की, जित: = जीतने वाले, चक्रपती = चक्रवर्ती, भूपः = राजा, अभवत् = हुये। श्लोकार्थ - इसके बाद तरूणाई से सुशोभित वह प्रभु पैतृक राज्य प्राप्त करके सारे विपक्ष को वश में कराने वाले चक्रवर्ती सम्राट हो गये। भूभृत्किरीटसंलग्नप्रदीप्यदलराजिभिः । सन्दीपितपदाम्भोजः परमं सुखमन्वभूत्। ३५।। अन्वयार्थ - भूभृत्किरीटसंलग्नप्रदीप्यद्रत्नराजिभिः = राजाओं के मुकुट में लगे चमकते रत्नों की कान्ति से, सन्दीपितपदाम्भोजः = चमक रहे हैं चरण कमल जिनके ऐसे उस कुन्थुनाथ ने, परम = उत्कृष्ट, सुखं = सुख का, अन्वभूत् = अनुभव किया। श्लोकार्थ - राजाओं के मुकुटों में लगे चमकते हुये रत्नों की कान्ति से जिनके चरण कमल चमक रहे हैं ऐसे कुन्थुनाथ ने परम सुख का अनुभव किया। एकस्मिन् समये देवः स्वात्मध्यानपरायणः । देहाद्विभिन्नमात्मानं बद्धं हि विकृतिस्तनोः ||३६ ।। विझाय तत्क्षणाद्देहात् विरक्तोऽभून्महामतिः । तदा लौकान्तिकाः. देवाः आगतास्तं प्रतुष्टुवः ।।३७।। अन्वयार्थ – एकस्मिन् = एक, समये = समय में, स्वात्मध्यानपरायणः = अपनी आत्मा के ध्यान में तत्पर, महामतिः = बुद्धिमान, देवः = प्रभु कुन्थुनाथ, ततोः = शरीर के कारण से, विकृतिः = विकार, (अस्ति = है), बद्धं = बंध को प्राप्त, आत्मानं = आत्मा को, हि = ही; देहात = देह से, भिन्नम् = भिन्न, विज्ञाय
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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