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पञ्चदशः
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तमब्रवीन्मुनीशाबाद. नृपः = राजा ने . पपृच्छ
तलो हप. मार्गमा वा दुनिसत्तमम् ।
तमब्रवीन्मुनीशानः स्वजनुष्यवृतं शृणु ।।८।। अन्वयार्थ - ततः - उसके बाद, नृपः = राजा ने, मुनिसत्तमं = मुनिराज
से, स्वपर्यायान् = अपनी पर्यायों को, पपृच्छ = पूछा, मुनीशानः = मुनिराजों के स्वामी केवलज्ञानी ने, तं = उससे, अब्रवीत् = कहा, स्वजनुष्यवृत्तं = अपने जन्म सम्बंधी
समाचार को, शृणु = सुनो। श्लोकार्थ -- उसके बाद राजा ने उन मुनिराज से अपनी पूर्व पर्यायों को
पूछा तो वह मुनिश्रेष्ट उस राजा से बोले- राजन् तुम अपने
जन्मों से संबंधित वृत्त को सुनो। पूर्वजन्मनि भूपाल त्यया सम्मेदभूभृतः ।
यात्रा कृता मनोवाग्भ्यां कायेन श्रद्धया मुदा । १५६।। अन्वयार्थ - भूपाल = हे राजन!, त्वया = तुम्हारे द्वारा, पूर्वजन्मनि =
पूर्व जन्म में, सम्मेदभूभृतः = सम्मेदशिखर पर्वत की, यात्रा = यात्रा, मुदा - प्रसन्नता से, श्रद्धया -- आस्था के साथ, मनोवाग्भ्यां = मन वाणी से, (च = और), कायेन = शरीर
से. कृता = की थी। श्लोकार्थ -. हे राजन्! तुमने अपने पूर्व भव में सम्मेदशिखर पर्वत की
यात्रा प्रसन्नता और श्राद्ध के साथ मन,वचन,काय की शुद्धि
पूर्वक की थी। तस्मात्त्वमस्मिन्पर्याये भूपोसि हे महानृप।
किञ्चिदन्यदपि क्षोणीपले शृणु कथानकम् ।।६।। अन्वयार्थ - तस्मात् = उसी कारण से, अस्मिन् = इस पर्याय में, हे
महानृप = हे महा राजन्!, त्वं = तुम, भूपः = सजा, असि = हो, क्षोणीपते = हे नृपश्रेष्ट!, किञ्चिद = कोई. अन्यदपि
= दूसरे भी, कथानकं = कथानक को, शृणु = सुनो। श्लोकार्थ – हे राजन्! उस सम्मेदगिरि की यात्रा करने के फल से तुम
इस पर्याय में राजा हुये हो। हे नृपश्रेष्ठ! तुम एक कोई अन्य कथानक को भी सुनो।