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पञ्चदशः
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अन्वयार्थ -. सः = उन, विजयी = चक्रवर्ती, नरेश्वरः = राजा. विभुः =
प्रभु ने, सर्वशत्रून् = सारे शत्रुओं को. वशीकृत्य = वश में करके, धर्मेण = धर्म मार्ग से, देवराजसमं = इन्द्र के समान,
राज्यं = राज्य को. बुभोज = भोगा, उसका पालन किया। श्लोकार्थ - उन चक्रवर्ती राजा प्रभु शांतिनाथ ने सारे शत्रुओं को अपने
वश में करके इन्द्र समान राज्य का पालन किया। एकस्मिन् दियसे विद्युल्लतां दृष्ट्वा क्षणप्रभाम् ।
क्षणिकं विश्वमाबुध्य विरक्तस्स संसृतेरभूत् ।।३४।। अन्वयार्थ – एकस्मिन् = एक. दिवसे = दिन, क्षणप्रभा = क्षणिक कान्ति
स्वरूप, विद्युल्लतां = बिजली को, दृष्ट्वा = देखकर, विश्वं == संसार या सभी को, क्षणिक = क्षणिक-विनश्वर, आबुध्य = जानकर, सः = वह, संसृतेः = संसार से, विरक्तः =
निरन्त, आभूत - हो गया। श्लोकार्थ – एक दिन क्षणभंगुर कान्ति वाली बिजली को देखकर वह
सारे पदार्थों को या संसार को क्षणिक जानकर संसार से विरक्त हो गया। ब्रह्मर्षयस्तदा प्राप्ताः देवं संवीक्ष्य हर्षिताः ।
प्रशंशंसुः प्रभु थाययैः विरक्तिरसपर्धकैः ।।३५ ।। अन्वयार्थ . तदा = तभी, देवं = प्रभु को, संवीक्ष्य - देखकर. हर्षिताः
= हर्षित हुये, ब्रह्मर्षयः = ब्रह्मर्षि नामक लौकान्तिक देव, (तत्र - वहाँ), प्राप्ताः = उपस्थित हुये, (च = और), विरक्तिरसवर्धकै: - वैराग्य रस को बढ़ाने वाले, वाक्यैः =
वाक्यों से, प्रY = भगवान् की, प्रशंशंसु = प्रशंसा की। रलोकार्थ – तभी प्रभु के वैराग्य भाव को देखकर ब्रह्मर्षि जाति के
लौकान्तिक देव वहाँ उपस्थित हुये और वैराग्य भाव को बढ़ाने वाले वाक्यों से प्रभु की प्रशंसा की। द्वादशायमनुप्रेक्षाः संभाव्य भुवनाधिपः । नारायणात्मजायाथ ददौ राज्यमनूत्तमम् ।।३६।।