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पञ्चदशः
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तदाज्ञप्तो यक्षपतिः तद्गृहे गगनागतः ।
यसून्यवर्षदत्युच्चै नाजातीन्यसो मुदा ।।१५।। अन्वयार्थ – तदा = तब, गगनागतः = आकाश से आये, आज्ञप्तः = इन्द्र
की आज्ञा को मानने वाले, यक्षपतिः = कुबेर ने, मुदा - हर्ष के साथ, तद्गृहे = उन राजा-रानी के घर में, नानाजातीनि = अनेक प्रकार के, अत्युच्यैः = अति उत्कृष्ट. वसूनि = रत्नों
को, अवर्षत् = बरसाया। श्लोकार्थ – तभी आकाश से आये और इन्द्र की आज्ञा को मानने वाले
यक्षपति कुबेर ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उन राजा-रानी
के घर में अनेक प्रकार के अति उत्कृष्ट रत्नों को बरसाया । एकदा भाद्रसप्तम्यां कृष्णायां भूपतिप्रिया ।
भरण्यामैक्षत प्रातः सा स्वप्नान् षोडशाद्भुताम् ।।१६।। अन्वयार्थ - एकदा = एक दिन, भाद्रसप्तम्यां = भादमास की सप्तमी
को. कृष्णायां = कृष्ण पक्ष में, भरण्यां = भरणी नक्षत्र में, सा - उस, भूपतिप्रिया = राजा की रानी ने, षोडश = सोलह, अद्भुतान = आश्चर्यकारी, स्वप्नान् = स्वप्नों को, प्रातः =
प्रातः बेला में, ऐक्षत = देखा। श्लोकार्थ – एक दिन भादों वदी सप्तमी को भरणी नक्षत्र में प्रातः बेला
में उस रानी ने सोलह अद्भुत स्वप्न देखे। स्वप्नान्त्ये वारणं वक्त्रे प्रविष्टमनुवीक्ष्य सा ।
कुरुवंशोद्भवं भूपं प्रबुद्धा प्रत्यगात्तथा।।१७।। अन्वयार्थ – तथा = और, स्वप्नान्त्ये :- स्वप्न देखने के अन्त में, वक्त्रे
= मुख में, प्रविष्टं = प्रविष्ट होते हुये. वारणं = हाथी को, अनुवीक्ष्य - देखकर, प्रबुद्धा = जागी हुयी, सा = वह रानी, कुरूवंशोद्भवं - कुरुवंश में उत्पन्न, भूपं = राजा की, प्रति
= तरफ, अगात् : गयी। श्लोकार्थ – तथा स्वप्न देखने के बाद अपने मुख में प्रविष्ट होते हुये
एक हाथी को देखकर जागी हुयी वह रानी कुरुवंशीय राजा की ओर गयी।