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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य स्यप्नान् संश्राव्य तद्वक्त्रात् श्रुत्वा स्वप्नफलानि सा। वागगोधरमानन्दमन्तः प्राप्तवती सती ।।१८।। अन्वयार्थ – स्वप्नान = स्वप्नों को. संपाख्य = सुनाकर, तद्वक्त्रात् =
उनके मुख से, स्वप्नफलानि = स्वप्न के फलों को, श्रुत्वा -- सुनकर, सा = उस, सती == पतिव्रता रानी, वागगोचरं = वाणी से नहीं कहा जा सकने योग्य, अन्तः = अन्तरङ्ग
में, आनंदं - आनंद को. प्राप्तवती = प्राप्त किया। श्लोकार्थ स्वप्नों को सुना कर और उनके मुख से स्वप्नों के फल को
सुनकर उस रानी ने अनिर्वचनीय अन्तःसुख को प्राप्त किया। गर्भागतस्स भगवान् यस्त्रिज्ञानविलोचनः । तपोनिधिः स्यतेजोभिः सहस्रार्कसमप्रभः ।।१६।। ज्येष्ठेऽथ कृष्णचतुर्दश्यां भरण्यां नृपवेश्मनि ।
प्रादुर्बभूव तस्यां सः प्राच्यानिय दिपाजः : २० अन्वयार्थ – यः = जो, त्रिज्ञानविलोचनः = तीन ज्ञान से जानने वाला,
तपोनिधिः = तपश्चरण से प्राप्त फल का खजाना, च = और), स्वतेजोभिः = अपने तेज से. सहस्रार्कसमप्रभः- हजार सूयों के समान तेज वाला. (देवः = देव), सः = वह, गर्मागतः - गर्भ में आ गया। अथ - गर्ग काल के बाद, सः :- वह, भगवान् = प्रभु, ज्येष्ठे = जेट माह में, कृष्णचतुर्दश्यां = कृष्णा चतुर्दशी को, गरण्यां = भरणी नक्षत्र में, नृपवेश्मनि = राजा के महल में, तस्यां = उन ऐरादेवी रानी में, प्राच्यां = पूर्व दिशा में, दिवाकरः
इव = सूर्य के समान, प्रादुभूव :- उत्पन्न हुये। श्लोकार्थ - जो तीन ज्ञान से जानने वाला तपश्चरण के फल को भोगने
वाला और अपने तेज से हजार सूर्यो के समान कान्तिमान जो देव था वह अब गर्भ में आ गया। गर्भकाल बीत जाने के बाद जेट बदी चतुर्दशी को भरणी नक्षत्र में राजा के भवन में उस रानी की कोख से भगवान का जन्म पूर्वदिशा में सूर्य के उदय होने के समान हुआ |