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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य जिनबिम्ब, प्रतिस्तम्भ = प्रत्येक भानस्तंभ पर, समीक्षिताः = अच्छी तरह देखे जाते हुये, (वर्तन्ते = रहते हैं), यः प्रथम हेमसालः = जो पहला स्वर्णरचित परकोटा है. तद्वहिः =
उसके बाहर, खातिका = खाई, स्मृता = बतायी गयी है। श्लोकार्थ - धूलिसाल परकोटे के भीतर बने मानस्तम्भ शुभ अर्थात् अत्यंत
सुन्दर. तीन-तीन कटानों से युक्त होते हैं, जिनमें प्रत्येक गानस्तम्प पर चारों दिशाओं में उत्तम फल प्रदान करने वाली चार-चार जिन प्रतिभायें अच्छी तरह दिखायी देने वाली होती हैं। पुनश्च धूलिसाल परकोटे से पहिला जो स्वर्णमय परकोटा
है उसके बाहर खाई बतायी गयी जाननी चाहिये। तस्यामन्तर्गता भाति विचित्रा वनवेदिका |
तदन्तर्विविधोत्फुल्लप्रसूना पुष्पवाटिका ।।७६।। अन्वयार्थ - तस्याम् = उस खाई में. अन्तर्गता = अन्तर्वर्ती, विचित्रा
बनवेदिका - एक विचित्र वन वेदिका, (भवति = होती है), तदन्तः - उसके अन्दर, विविधोत्फुल्लप्रसूना = अनेक प्रकार के खिले फूलों से युक्त, पुष्पवाटिका = फलों की बगीची,
(भवति = होती है। श्लोकार्थ - उस खाई में अंतः स्थित एक विचित्र वन वेदिका होती है
जिसके भीतर अनेक प्रकार के सुविकसित सुमनों से
फलीफूली पुष्पवाटिका होती है। तदन्तर्गतो वै भाति स्वर्णसालो मनोहरः ।
तत्र चतुरदीप्तोऽस्ति मङ्गलद्रव्य संचयः ||८|| अन्वयार्थ - तदन्तर्गतः = उसके अन्दर स्थित, वै = निश्चय ही, मनोहर:
= आकर्षक, स्वर्णसालः = स्वर्ण की दीवारों युक्त तट, भाति = सुशोभित होता है, तत्र = वहाँ, चतुरद्वीप्तः :- चारों द्वारों पर चमकता हुआ, मङ्गलद्रव्यसंचयः = मङ्गलद्रव्यों का संग्रह, अस्ति = होता है।