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चतुर्दशः
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के संशय दूर करते हुये पुण्यक्षेत्र स्वरूप सभी देशों में विहार किया। जीवनं मासमात्रं स्वं प्रबुध्य परमेश्वरः ।
संहृत्य दिव्यनिर्घोषं सम्मेदाचलमध्यगात् ।।४६ ।। अन्वयार्थ · परमेश्वरः = केवलज्ञानी अर्हन भगवान्, स्वं = अपना, जीवनं
= जीवन अर्थात् आयु, मासमात्रं = एक माह मात्र, प्रबुध्य - जानकर, (च = और), दिव्यनिर्घोष - दिव्यध्वनि को, संहृत्य = रोककर, सम्मेदाचलं = सम्मेदाचल पर्वत पर, अध्यगात्
= चले गये। श्लोकार्थ - केवलज्ञानी अर्हन्त भगवान् धर्मनाथ अपनी वर्तमान आयु एक
मास मात्र जानकर और दिव्यध्वनि को रोककर सम्मेदशिखर
पर चले गये। शुभे सः दत्तवरकूटे शुक्लध्यानकृतादरः ।
ज्येष्ठे शुक्लधतुर्थ्यां हि प्रतिमायोगमधारयत् ।।५।। अन्ययार्थ - शुक्लध्यानकृतादरः = शुक्लध्यान में संलग्न, सः = उन प्रभु
ने, ज्येष्ठे = जेठ माह में. शुक्लचतुर्थ्यां = शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन, हि = ही, शुभे = शुभ, दत्तवरकूटे = दत्तवर नामक कूट पर, प्रतिमायोगं - प्रतिमायोग को, अधारयत
धारण किया। श्लोकार्थ - शुक्लध्यान में आदर से संलग्न उन भगवान् ने जेट सुदी
चतुर्थी को दत्तवर नामक शुभ कूट पर प्रतिमायोग धारण कर लिया। कर्मबन्धविनिर्मुक्त्तः सहस्रमुनिभिस्समम् ।
देवो जगाम कैवल्यं दुर्लभं मुनिवाञ्छितम् ।।५१।। अन्वयार्थ · कर्मबन्धविनिर्मुक्त: :: कर्म के बन्धन से मुक्त हुये, देवः =
उन भगवान् ने, सहस्रमुनिभिः = एक हजार मुनियों के. सम = साथ, मुनिवाञ्छितं = मुनियों द्वारा चाहा गया, दुर्लभं = दुर्लभ, कैवल्यं = केवलज्ञान से प्राप्त निर्वाण को, जगाम = चले गये।