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श्री सम्मेदशिखर माहात्य समोसरण आया था जिसका वर्णन करते हुये कवि ने यहाँ उसकी लम्बाई-चौड़ाई का प्रमाण एक-एक योजन बताया है। एक योजन के बराबर २ कोस, एक कोस = २ मील तथा
१ मील = १/२ कि०मी० माना गया है। प्रथमं धूलिसालोऽस्ति ततः सालत्रयं स्मृतम् ।
तद्वृत्तं धुलिसालस्तु रत्नरेणुमयी मतः ।।७३।। अन्वयार्थ - (तत्समवसारे = उस समवसरण में) प्रथमं = पहला,
धूलिसालः = धूलिसाल नामक परकोटा, अस्ति = है, ततः = उस धूलिसार नामक परकोटे से, सालत्रयं = तीन परकोटे, स्मृतम् = बताये गये स्मृत हैं, तद्वृत्तं = उन तीनों परकोटों को घेरे हुये, धूलिसालः = धूलिसाल नामक परकोटा है, (सः च - और वह), रत्लरेणुमयी = रत्नधूलि से निर्मित, मतः =
माना गया है। श्लोकार्थ - उस समवसरण में पहला परकोटा धूलिसाल नामक है.
तदनन्तर तीन परकोटे भी हैं जिनसे धूलिसाल नामक परकोटा है, यह रत्न रेणु अर्थात् रत्नों के चूर्ण से निर्मित माना
गया है। तस्मात् प्रथमसालस्तु जांबुनदविनिर्मितः । ततो रूप्यमधो ज्ञेयो द्वितीयः साल उत्तमः ।।७४।। तृतीयः स्फटिकाख्योधन्मणिप्रचुरतां गतः । धूलिसालान्तरे तत्र चतुर्दिक्षु हिरण्यमयाः ।।७।। मानस्तम्भाश्च चत्वारस्तेषां पार्वे शुभोदकाः।
चतुश्चतुः सरोवर्याश्चतुर्दिा प्रभान्ति वै । ७६।। अन्वयार्थ - तस्मात् = उस धूलिसाल से, प्रथमसालः = पहिला परकोटा,
जांबुनदविनिर्मितः = स्वर्णनिर्मित, ततश्च = उससे, द्वितीयः = दूसरा, रूप्यमयः = चांदीमय, सालः = परकोटा, उत्तमः = श्रेष्ठ, तृतीयः = तीसरा परकोटा. स्फटिकाख्योद्यन्मणि