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चतुर्दशः
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अन्वयार्थ - षण्मासमध्यहोरात्रं = छह माह तक दिन रात, एकरूपाम =
एक जैसी, अद्भुता = आश्चर्यकारी, एनां = इस, रत्नदृष्टि = रत्नों की वर्षा को, समीक्ष्य = देखकर, बुधाः = विद्वज्जनों ने, भावि = आगे, मर्द = कल्याण-अच्छाई को, जगुः = जान
लिया। श्लोकार्थ - छह माह तक दिन रात लगातार एक जैसी एवं आश्चर्यकारी
इस रत्नवृष्टि को देखकर विद्वज्जनों ने भावि कल्याण को
जान लिया। वैशाखे मासि शुक्लायां त्रयोदश्यां चतुष्कों।
सुप्ता देवी प्रभाते सा स्वप्नानैक्षत षोडश ||१६ ।। अन्वयार्थ - वैशाखे = शास्त्र, मारिस : मस में, तुरन - शुगल पक्ष
में त्रयोदश्यां = तेरस के दिन, चतुष्कमे = चौथे अर्थात् रोहिणी नक्षत्र में, प्रभाते - प्रमात बेला में, सुप्ता = सोयी हुयी, सा = उस. देवी = रानी ने, षोडश = सोलह, स्वप्नान्
= स्वप्नों को, ऐक्षत = देखा | श्लोकार्थ - वैसाख शुक्ला तेरस को चौथे रोहिणी नक्षत्र के होने पर
प्रभातबेला में सोयी हुयी उस रानी ने सोलह स्वप्नों को देखा। तदन्ते मत्तमातङ्गं प्रविष्टं मुखपङ्कजे ।
समालोक्य प्रबुद्धा सा मानसेनाद्भुतमलभत् ।।२०।। अन्वयार्थ - तदन्ते = स्वप्न देखने के अन्त में मुखपङ्कजे = मुखकमल
में, प्रविष्टं = प्रविष्ट होते हुये, मत्तमातङ्गं = उन्मत्त हाथी को, समालोक्य = देखकर, प्रबुद्धा = जागी हुयी. सा = उस रानी ने, मानसेन = मन द्वारा, अद्भुतं = आश्चर्य को, अलभत्
= प्राप्त किया। श्लोकार्थ - स्वप्न देखने के अन्त में उस रानी ने अपने मुख में प्रविष्ट
होते हुये उन्मत्त हाथी को देखा। जागी हुई उस रानी ने मन में कुछ अद्भुत आश्चर्यकारी अनुभव किया अर्थात् वह आश्चर्य को प्राप्त हुई।