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________________ ३६१ त्रयोदशः राजा, ईदृग्विधमपि - इस प्रकार के भी, स्वीयं = अपने, राज्य = राज्य को, त्यक्त्वा = छोड़कर, विरक्तः = विरक्तो,अभूत् = हो गया, अथ = उसके बाद, जैनी = जैनेश्वरी, दीक्षा = मुनिदीक्षा को, अग्रहीत् = ग्रहण कर लिया। श्लोकार्थ - वह भव्यों का सम्राट् राजा चारूपेण अपने इस प्रकार के राज्य को छोड़कर विरक्त हो गया फिर उसने जैनेश्वरी दीक्षा को ग्रहण कर लिया। ध्वनि जयजयेत्युच्चैः शृण्वन् सततमाचरन् । स्वयम्भूनाम तत्कूटमभिवन्द्य मुदान्धितः ।।१४।। एकार्बुदं चर्तुयुक्ताशीतिकोटिमुनीश्वरैः । सार्धं सः शिवपदं प्राप्य बभूव भवनिर्वृत्तः ।।१५।। अन्वयार्थ - सततं = निरन्तर, आचरन् = आचरण करते हुये, जयजयेति = जय हो, जय हो इस प्रकार, उच्चैः = उच्च स्वर वाली तेज, ध्वनि = ध्वनि को, कर = सुमो दुये. स्वपणना = स्वयंभू नामक, तत्कूटं -"उस कूट को, अभिवन्द्य = प्रणाम करके. मुदान्वितः = प्रसन्नता से भरे हुये, सः = वह मुनिराज, एकार्बुदं - एक अरब, चतुर्युक्ताशीतिकोटिमुनीश्वरैः =: चौरासी करोड़ मुनिराजों के. सार्ध = साथ, शिवपद = मोक्ष पद को प्राप्य = प्राप्त करके. भवनिर्वृत्तः = संसार से मुक्त, - बभूव - हुये। श्लोकार्थ - निरन्तर आचरण करते हुये तथा जय हो, जय हो ऐसी उच्च स्वर वाली ध्वनि को सुनते हुये स्वयंभू नाम कूट को प्रणाम करके प्रसन्नता से भरे हुये वह मुनिराज एक अरब चौरासी करोड़ मुनिराजों के साथ मोक्षपद पाकर भव से मुक्त हुये। महामोक्षपदं तस्य कूटं भव्यजनाश्रितम् । श्रद्धया योऽभिवन्देत स निर्वाणपदं लभेत ।।६६ ।। अन्वयार्थ - तस्य = सम्मेद शिखर पर्वत की, भव्यजनाश्रितं = भव्य जनों के आश्रय स्वरूप, महामोक्षपदं = महान मोक्ष का कारण स्थान, कूटं = कूट को, यः = जो, श्रद्धया = श्रद्धा से.
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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