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________________ ३६० श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य श्लोकार्थ - स्वतंत्र रूप से यात्रा उससे भी अधिक फल देने वाली होगी यह अपने मन में सोचकर वह राजा सम्मेदशिखर की यात्रा करने के लिये सम्मुख हो गया। संघ की भक्ति में तत्पर उस बुद्धिमान् राजा ने पीले वस्त्र पहिने हुये अठारह अक्षौहणी संख्या के बराबर प्रमाण में श्रेष्ठ-भव्य मनुष्यों को साथ चलने वाला करके सम्मेद पर्वत की यात्रा को किया । नवमोक्तशतान्येष रत्नानि प्राप्य भूमिपः । अनेकलोकसम्धन्नो बभूवाऽस्य प्रथाणतः ।।६।। अन्वयार्थ - एषः = यह, भूमिपः = राजा, अस्य = इस सम्मेद पर्वत के, प्रयाणतः = प्रयाण अर्थात् यात्रा के उद्यम से, नवमोक्तशतानि = नौ सौ, रत्नानि = रत्नों को प्राप्य = प्राप्त कर, अनेकलोकसम्पन्नः = अनेक लोगों में सम्पन्न, बभूव = हो गया। श्लोकार्थ - यह राजा इस सम्मेदशिखर पर्वत की यात्रा से नौ सौ रत्नों को पाकर के अनेक लोगों में सम्पन्न हो गया। अवर्णनीया तद्भूति: नानारत्नमयी किल | वर्णनाद् ग्रन्थविस्तारो भवेत्तस्मान्न चोच्यते ।।१२।। अन्वयार्थ - किल - सचमुच ही. नानारत्नमयी : अनेक रत्नों से परिपूर्ण, तभूतिः = उस राजा का वैभव, अवर्णनीया = वर्णनातीत था, तस्मात् = उस, वर्णनात् = वर्णन से, ग्रन्थविस्तारः = ग्रन्थ का विस्तार, भवेत् = होगा, तस्मात् = इसलिये, न = नहीं, उच्यते = कहा जाता है। श्लोकार्थ - उस राजा का अनेक रत्नों से परिपूर्ण वैभव अवर्णनीय था उसका वर्णन करने से ग्रन्थ बढ़ जायेगा इसलिये वह वर्णन नहीं किया जा रहा है। ईदृग्विधमपि स्वीयं चारूषेणस्स भव्यराट् । राज्यं त्यक्त्या विरक्तोऽभूत् जैनी दीक्षामथाग्रहीत् ।।६३।। अन्वयार्थ - सः = वह उस, भव्यराट् = भव्य सम्राट्, चारूषणः = चारूषण
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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