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अभिवन्देत को, लभेत
श्लोकार्थ - सम्मेदशिखर की कूट, जो भव्यजनों का आश्रय स्थल एवं महान् मोक्ष की कारण है, को जो भी श्रद्धा से प्रणाम करे वह निर्वाण पद को पाये।
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यस्माच्च श्रीमान् विश्वनाथो ह्यनन्तः
सिद्धस्थानं विश्ववाञ्छितं जगाम । यो भव्यौघैः पूजितो वन्दितश्च
-अन्वयार्थ यस्मात्
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कूटं शुद्धं तं स्वयम्भ्वाख्यमीडे ।। ६७ ।। जिस कूट से श्रीमान् = श्री अर्थात् अंतरङ्ग बहिरङ्ग, लक्ष्मी सहित विश्वनाथः = जगत् के स्वामी, अनन्तः भगवान् अनंतनाथ, हि निश्चित रूप से, विश्ववाञ्छितं सभी के लिये इच्छित सिद्धस्थानं मोक्षस्थान को जगाम गये, च = और, यः = जो कूट, भव्यौधैः = भव्य जीवों के समूहों से पूजितः पूजी जाती है, वन्दितः = वन्दना की जाती है, तं - उस शुद्धं शुद्ध अर्थात् पवित्र, स्वयम्वास्व्यं = स्वयंभू नामक कूट कूट को, ( अहं मैं). ईडे = नमस्कार करता हूं, उसकी स्तुति करता हूं। लोकार्थ जिस कूट से अन्तरङ्ग बहिरङ्ग लक्ष्मी के धनी अर्थात् केवलज्ञानी भगवान् अनन्तनाथ निश्चित ही विश्ववांछित पद मोक्ष स्थान को गये तथा जो कूट भव्यजनों के समूहों द्वारा वन्दनीय पूजनीय है उस पवित्र स्वयंभू नामक कूट को मैं प्रणाम करता हूं, उसकी स्तुति करता हूं। [इति दीक्षितानेमिदत्तविरचिते श्री सम्मेदशैलमाहात्म्ये तीर्थङ्करानन्तनाथवृतान्तपुरस्सरं श्रीस्वयंभूकूटवर्णनं
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नाम त्रयोदशमोऽध्यायः समाप्तः । }
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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य
प्रणाम करे, सः = वह, निर्वाणपदं = निर्वाणपद
पाये 1
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इस प्रकार दीक्षितब्रह्मनेमिदत्त द्वारा रचित श्री सम्मेदशैलमाहात्म्य नामक काव्य में तीर्थङ्कर अनन्तनाथ का वृतान्त बताता हुआ श्री स्वयंभूकूट का वर्णन करने वाला तेरहवां अध्याय समाप्त हुआ । }