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________________ ३८५ त्रयोदशः समुद्रदत्त ने उस विद्याधर को पीतवस्त्र प्राप्त करने के भाव से देखकर विचार किया तंब उस ही समय वह विमान कीलित हो गया सचमुच ही आकाश से जाने के लिये समर्थ नहीं हुआ। तदा विस्मितचित्तोऽसौ कारणान्वेषणोत्सुकः । समुद्रदत्तमायातं ददर्शातीव दुःखितम् ।।७५ ।। उत्ततार तदा तत्र विमानं तत्स्पृहेरितम् । विद्याधरः प्रसन्नोऽभूत् तस्योपरि दयायशात् |७६ ।। पीतानि वस्त्ररत्नानि तस्मै दत्वा स्वयं तथा । विद्याधरैरनेकैश्च तेन सार्ध चचालः । ७७।। अन्वयार्थ - तदा = तभी, विस्मितचित्त: = आश्चर्य से चकित चित्त वाला, कारणान्वेषणोत्सुकः = विमान रुक जाने के कारण को खोजने के उत्सुक, असौ = उस विद्याधर ने, आयातं = आते हुये. अतीव = अत्यधिक, दुःखितं = दुःखी होते हुये, समुद्रदत्तं = समुद्र दत्त को ददर्श = देखा, तदा = तब. तस्स्पृहेरितम् = उसकी इच्छा से प्रेरित, विमानं = विमान को, तत्र = वहीं. उत्ततार-उतार दिया, तस्य = उस समुद्रदत्त के, उपरि = ऊपर, दयावशात् - दया आ जाने से, विद्याधरः - विद्याधर, प्रसन्नः = प्रसन्न. अभूत् = हो गया, तथा = और, स्वयं = स्वयं ही, तस्मै = उसके लिये, पीतानि = पीले. वस्त्ररत्नानि = रत्न जड़ित वस्त्रों को, दत्त्वा = देकर, अनेकैः = अनेकों, विद्याधरैः = विद्याधरों के च = और, तेन = उस समुद्रदत्त के. सार्धं = साथ, सः = वह सुकेत विद्याधर, चचाल = चला । श्लोकार्थ - तभी अर्थात् विमान के कीलित होने से आश्चर्य चकित चित्त वाला और विमान रुकने के कारण को खोजते हुये उस विद्याधर ने आते हुये तथा अत्यधिक दुःखी होते हुये समुद्रदत्त को देखा तब उसकी इच्छा से प्रेरित विमान को वहीं उतार दिया. समुद्रदत्त के ऊपर दया आ जाने से विद्याधर प्रसन्न हो गया तथा स्वयं ही उसके लिये पीले रत्नखचित वस्त्र देकर अनेकों विद्याधरों और उस समुद्रदत्त के साथ ही वह विद्याधर यात्रा के लिये चल दिया।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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