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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य
चकार = किया, तावत् = उतने समय में, तदा. = तभी, सुकेताख्यः सुकेत नामक विद्याधरः = विद्याधर, भाग्यतः = भाग्य से, तत्रैव वहीं, विमानात् = विमान से, आयात्
= आया।
श्लोकार्थ मेरी यह विधि अर्थात् यात्रा के लिये पीत वस्त्र पहनकर पर्वत पर जाने का उपाय किस महापुरुष के पास से अर्थात् किस महापुरुष की सहायता से बन पायेगा इस प्रकार की चिंता को वह अपने मन में आम वृक्ष के नीचे बैठकर कर रहा था। उसने जितने समय में उस चिन्ता को किया उतने समय में ही तभी वहाँ एक सुकेत नामक विद्याधर वहाँ विमान से आ
गया ।
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कनकादिधरा तस्य प्रिया सार्धं तया हि सः । पूजां पद्मप्रभस्यैव कर्तुकामः कृतोत्सवः । ७३ ।। अभ्यधावत् तं दृष्ट्वा तद्भावेन तदैव तत् । विमानं कीलितं गंतुं शशाक न किलाभ्रतः । । ७४ ।।
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= वह, पद्मप्रभस्य
अन्वयार्थ तस्य = उस विद्याधर की, प्रिया प्रियरानी, कनकादिधरा कनकादिधरा, (आसीत् = थी). तया = उसके सार्धं = साथ, हि = ही, सः = तीर्थकर पद्म प्रभु की, पूजां = पूजा को एव = ही, कर्तुकामः = करने की कामना करता हुआ, ( च = और) कृतोत्सवः - उत्सव करता हुआ, अभ्यधावत् = दौड़ता हुआ सा जा रहा था. तदैव उसी समय, तद्भावेन = उसी इच्छा की पूर्ति अर्थात् पीले वस्त्र प्राप्त करने के भाव से, तं = उस विद्याधर को, दृष्ट्वा = देखकर, (अचिन्तयत् उस समुद्रदत्त ने सोचा ), तदैव तभी, कीलित = वह, विमानं = विमान, कीलितं तत् हो गया, किल निश्चित ही, अभ्रतः = आकाश से, गंतुं = जाने के लिये, न - नहीं, शशाक = समर्थ हुआ । श्लोकार्थ उस सुकेत विद्याधर की कनकादिधरा नाम की प्रिया थी जिसके साथ वह विद्याधर पद्मप्रभस्वामी की पूजा को करने की कामना और उत्सव करता हुआ दौडा सा जा रहा था।
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