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श्री सम्मेदशिखर गाहात्य उज्ज्वलम् = उज्ज्वल, केवलज्ञानं = केवलज्ञान को. प्राप =
प्राप्त कर लिया। श्लोकार्थ - चैत्र माह की अमावस्या को घातिकर्मों को भस्म करके वट
वृक्ष के नीचे उन्होंने उज्ज्वल केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। तज्ज्ञानस्य प्रकाशात्स यज्जगति तज्ज्ञातवान् ।
न भूतं नास्ति नो भावि नामरूपगुणादिभृत् ।।४८।। अन्वयार्थ - तज्ज्ञानस्य = उस केवलज्ञान के, प्रकाशात् = प्रकाश से, सः
- उन्होंने ना .. जगत में, मत् ।। जो है, तत् = उसको. ज्ञातवान् = जान लिया, नामरूपादिगुणादिमृत् = नाम रूप आदि गुणों से युक्त जगत्, न भूतं = केवल भूत नहीं रहा. न अस्ति = केवल वर्तमान नहीं रहा, नो भावि = केवल
भविष्यत् नहीं रहा। श्लोकार्थ · उस केवलज्ञान के प्रकाश से प्रभु ने जगति में नामरूपगुणादि
से भरपूर जो कुछ भी था उसे जान लिया उन्हें अब भूत-वर्तमान और भविष्य सब युगपत् जानने में आते थे। प्रभोः केवलबोधाप्तिं ज्ञात्वा देवपतिस्तदा ।
चित्रं समयसारं स तदैवागत्य संय्यधात् ।।४६।। अन्वयार्थ - देवपतिः = इन्द्र ने, प्रमोः = प्रमु के, केवलबोधाप्ति =
केवलज्ञान की प्राप्ति को, ज्ञात्वा = जानकर, तदैव = उसी समय, आगत्य = आकर, चित्रं = विचित्र आश्चर्योत्पादक,
समवसारं = समवसरण को, संव्यधात् = रच दिया। श्लोकार्थ - देवपति इन्द्र ने प्रभु को केवलज्ञान हो गया है. ऐसा जानकर
उसी समय वहाँ आ गया और उसने आश्चर्योत्पादक
समवसरण को रच दिया। तस्मिन् सहस्ररविरुक् प्रभुः सर्वोपर्युदारधीः ।
सर्वोपरि स बाज भव्यवृन्दसमर्थितः ।।५।। अन्वयार्थ - भव्यवृन्दसमर्चितः = भव्यजीवों के समूहों से पूजे जाते हुये,
सहस्ररविरुक = हजार सूर्यों के तेज से युक्त, (च = और),