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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य
ही क्षणभंगुर अर्थात् विनाशीक है। इस संसार में मूर्खजन ही प्रमाद का आचरण करते हैं आत्मा को जानने वाले विद्वज्जन नहीं । सचमुच ही कठिनता से प्राप्त होने वाला यह मनुष्यत्व है इसे प्राप्त कर महापुरुष तपश्चरण करते हैं क्योंकि तपश्चरण से कर्मों का नाश होता है और कर्मों के नाश हो जाने से परम पद अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है।"
अन्वयार्थ
ज्येष्ठमाससितायां हि द्वादश्यां भूपिपैः सह ।
सहस्रप्रमितैर्दीक्षां
श्लोकार्थ
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अन्वयार्थ ज्येष्ठमाससितायां = जेठ मास के शुक्लपक्ष में, द्वादश्यां बारहवीं के दिन, हि ही, सहस्रप्रमितैः = एक हजार संख्या परिमित, भूमिपैः = राजाओं के सह= साथ, (सः = साथ, (सः = उन्होंने ), शिवकारणां = मोक्ष की कारण स्वरूप, दीक्षां मुनिदीक्षा को, जग्राह = ग्रहण कर लिया ।
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श्लोकार्थ जेठ सुदी बारहवीं के दिन एक हजार राजाओं के साथ उसने मोक्ष की कारण स्वरूप मुनिदीक्षा को ग्रहण कर लिया। ततस्तस्यान्तर्मुहूर्ते त्रिबोधनयनस्य हि । आसीच्चतुर्थं तज्ज्ञानं मनः पर्ययसंज्ञकम् ||४३||
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इस प्रकार विचारमग्न विरक्त राजा की स्तुति करने के लिये सारस्वत जाति के देव वहाँ आ गये। उसी समय अपने अवधिज्ञान से प्रभु को तपश्चरण हेतु उद्यमशील जानकर इन्द्र भी प्रभु के पास आ गया ।
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तब सागरदत्त नामक पालकी पर चढ़कर और तप के लिये उत्साहित होकर देवों से स्तुति किये जाते हुये वह प्रभु सहेतुक वन में चले गये ।
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जग्राह शिवकारणाम् ।। ४२ ।।
ततः = मुनिदीक्षा लेने के बाद, तस्य = उन, त्रिबोधनयनस्य = तीन ज्ञान के धारी मुनिराज के अन्तर्मुहूर्ते = अन्तर्मुहूर्त
में, चतुर्थं = चौथा, तत् = वह, मनः पर्ययसंज्ञकं = मन:पर्यय नामक ज्ञानं = ज्ञान, आसीत् = हुआ।
मुनिदीक्षा लेने के बाद अन्तर्मुहूर्त में ही उन तीन ज्ञान के धारी मुनिराज को चौथा मन:पर्यय नामक ज्ञान हो गया ।