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________________ ३६७ त्रयोदशः में चन्द्रमा के समान शोभायमान, शीलव्रत के तेज से चमकती हुयी सौन्दर्यवती एवं सद्भाग्य की स्वामिनी थी। तयोर्गृहे श्रीभगवदवसारं च भाविनम् । ज्ञात्वा शक्राज्ञयाऽमुञ्चद्धनदा रत्नसंचयम् ।।१६।। अन्वयार्थ - तयोः = उन दोनों के, गृह = घर में, भाविनं = भविष्य में होने वाला, श्रीभगवदवतारं = श्री सम्पन्न भगवान् के अवतरण को, ज्ञात्वा :: जानकर, शक्राज्ञया = इन्द्र की आज्ञा से, धनद. = धनद कुबेर ने, रत्नसंचयं = रत्नों के समूह, अमुञ्चत् = छोड़े अर्थात् बरसाये। श्लोकार्थ · उन दोनों अर्थात् सिंहसेन राजा और जयश्यामा रानी के घर में भावि तीर्थकर का अवतरण होगा ऐसा जानकर इन्द्र ने मुष को आज्ञा दी तक मुझे । रजों की राशि बरसायी। षाण्मासिकी रत्नवृष्टिं तदा पौरा हि सांततीम् । विस्मिता भाविसद्भद्रनृपगेहं प्रपेदिरे ।।२०।1।। अन्वयार्थ - तदा = तब, सांतती = लगातार--प्रतिदिन, हि = ही, पाण्मासिकी = छह माह तक होने वाली, रत्नवृष्टिं = रत्नवृष्टि को, (दृष्ट्वा = देखकर). विस्मिताः = विस्मय को प्राप्त हुये, पौराः = प्रजाजन भाविसद्भद्रनृपगेह = भविष्य में अच्छे कल्याण का केन्द्र राजा के घर को, प्रप्रेदिरे = मानने लगे। श्लोकाशं . तब प्रतिदिन छह माह तक होने वाली रत्नवृष्टि को देखकर आश्चर्यचकित प्रजा मानने लगी कि राजा का यह घर भविष्य में सच्चे कल्याण को बताने का केन्द्र होगा। एकदा कार्तिके कृष्णपक्षे प्रतिपदातिथौ । सुप्ता देवी प्रभाते सा स्वप्नानेक्षत षोडश ।।२१।। अन्वयार्थ - एकदा = एक दिन, कार्तिके = कार्तिक मास में, कृष्णपक्षे = कृष्णपक्ष में, प्रतिपदातिथौ = प्रतिपदा की तिथि में, सुप्ता = सोयी हुई, सा = उस, देवी = रानी ने, प्रभाते = प्रभात काल में, षोडश = सोलह, स्वप्नान = स्वप्नों को, ऐक्षत् = देखा।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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