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ऋयोदशः
श्लोकार्थ • बाबीस सागर की आयु प्राप्त करके वह श्रेष्ठ देव बाबीस हजार
वर्ष के बाद मानसिक आहार अर्थात् अमृत आहार करने वाला
हुआ। द्वाविंशत्युक्तपक्षेषु गतेषूच्छयासमग्रहीत् ।।
दिव्यस्वर्गीयसौख्यात् स प्रोत्फुल्लवदनाम्बुजः ।।१३।। अन्वयार्थ - दिव्यस्वर्गीयसौख्यात् = स्वर्ग के दिव्य सुखों से,
प्रोत्फुल्लवदनाम्बुजः = प्रफुल्लित कमल सदृश मुख वाला अर्थात् प्रसन्न, सः = वह देव, द्वाविंशत्युक्तपक्षेषु = बावीस पक्ष अर्थात् पखवाड़े, गतेषु = बीत जाने पर, उच्छवासम् =
सांस को, अग्रहीत - ग्रहण करता था। श्लोकार्थ - स्वर्ग के दिव्य सुखों के कारण प्रफुल्लित मुख वाला अर्थात्
प्रसन्नवदन वह देव बावीस पक्ष बीतने पर श्वासोच्छ्वास लेता
था।
स्वावधिज्ञानक्षेत्रेषु सर्वकार्यकृतिक्षमः !
अनादिसिद्धान् सन्ध्यायन् षण्मासायुर्बभूव सः ।।१४।। अन्वयार्थ . स्वावधिज्ञानक्षेत्रेषु = अपने अवधिज्ञान की मर्यादा वाले क्षेत्रों
में, सर्वकार्यकृतिक्षमः = सारे कार्यों को करने में सक्षम, सः = वह देव, अनादिसिद्धान् = अनादिसिद्धों को, सन्ध्यायन = ध्याते हुये, षण्मासायुः = छह माह की शेष आयु वाला
बभूव = हो गया। श्लोकार्थ - अपने अवधिज्ञान के मर्यादा क्षेत्र में सारे कार्यों को करने में
सक्षम वह देव अनादिसिद्धों को ध्याते हुये मात्र छह माह की शेष आयु वाला हो गया। अथ तस्यावतारस्य कथा श्रवणसौख्यदाम् ।
कलुषघ्नी प्रवक्ष्येऽहं महासुकृतवर्धिनीम् ।।१५।। अन्वयार्थ - अथ = अब, तस्य = उस देव के, अवतारस्य = अवतरण
की. श्रवणसौख्यदां = सुनने में सुखद, कलुषनी = पाप को नष्ट करने वाली, महासुकृतवर्धिनी = महापुण्य को बढ़ाने वाली, कथां = कथा को, अहं = मैं, प्रवक्ष्ये = कहता हूं।