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________________ ३६४ श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य श्लोकार्थ - अपनी तपश्चर्या से धीरभाव को प्राप्त वह मुनिराज ग्यारह अगों के धारी हो गये उन्होंने सोलह कारणादि सुन्दर भावनाओं को भाकर तीर्थङ्कर नामक सर्वोत्कृष्ट पुण्य कर्म को भी बाँध लिया। अन्ते संन्यासविधिना तनुं त्यक्त्वा च धैर्यवान् । स्वात्मध्यानबलान्मोहवीरारिं स विजित्य हि ।।१०।। शुद्धचित्तो हि षोडशे कल्पे जज्ञे सोऽच्युतनाम्नि । पुण्यादिन्द्रत्वमा गुनोतर विमानमः । ' अन्वयार्थ - स्वात्मध्यानवलात् = अपनी आत्मा के ध्यान से, मोहवीरारि = मोह रूप बलवान शत्रु को, विजित्य = जीतकर, च = और, अन्ते = अन्त में, संन्यासविधिना = संन्यासमरण की विधि से, हि - ही, तनुं - शरीर को, त्यक्त्वा = छोड़कर, सः = बह, शुद्धचित्तः = निर्विकार मन वाले, धैर्यवान् = धीर वीर मुनिराज ने, अच्युतनाम्नि = अच्युत नामक, षोडशे - सोलहवे, कल्पे = विमान में, जज्ञे = उत्पन्न हुये अर्थात् जन्म लिया, पुष्योत्तरविमानगः = पुष्योत्तर विमान में रहते हुये, सः - उस देव ने, पुण्यात् - पुण्य से, हि = ही, इन्द्रत्वं = इन्द्रत्व को, आपेदे = प्राप्त किया। श्लोकार्थ - अपनी आत्मा के ध्यान से मोहरूपी बलवान् शत्रु को जीतकर और अन्त में संन्यास मरण पूर्वक देह को छोड़कर उन शुद्धचित्त धीर वीर मुनिराज ने सोलहवें अच्युल नामक स्वर्ग में जन्म लिया। अच्युत स्वर्ग के पुष्योत्तर विमान में उत्पन्न हुये उस देव ने पुण्य से ही इन्द्र पद प्राप्त किया। द्वाविंशतिसमुदायुः सम्प्राप्य सुरसत्तमः | हाविंशतिसहस्राब्दपरं सोऽभून्मनो शनः ||१२।। अन्वयार्थ . द्वाविंशतिसमुद्रायुः = बाबीस सागर की आयु को, सम्प्राप्य = प्राप्त करके, सः = वह, सुरसत्तमः = देवोत्तम इन्द्र, द्वाविंशतिसहस्राब्दपरं = बाबीस हजार वर्ष के बाद, मनो शनः = मन से आहार करने वाला, अभूत् = हुआ ।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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