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त्रयोदश:
श्रुत्वा तन्मुखचन्द्राच्च यतिधर्मान् सुनिर्मलान् । मिथ्यात्ववर्जितो राजा विरक्तस्सम्बभूव सः ।।७।। अन्वयार्थ च = और तन्मुखचन्द्रात् = उन तीर्थङ्कर स्वयंप्रभु के मुख कमल से, सुनिर्मलान् = सुनिर्मल, यतिधर्मान् = मुनि के धर्मों को, श्रुत्वा सुनकर, मिथ्यात्ववर्जितः - मिथ्यात्व से रहित, सः वह राजा - राजा, विरक्तः = वैराग्य भाव को प्राप्त. सम्बभूव हो गया ।
श्लोकार्थ - तीर्थङ्कर स्वयंप्रभं के मुख से मुनिधर्म के निर्मल स्वरूप को सुनकर वह पद्मश्थ नामक सम्यग्दृष्टि राजा विरक्त हो गया। तदा घनरथायासौ राज्यं दत्वात्मपुत्राय ।
वनं गत्वा तपोदीक्षां जग्राह परमार्थवित् ।।८।।
अन्वयार्थ
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तदा तब अर्थात् विरक्त होने पर, असौ = उस, परमार्थवित् = परमार्थ के ज्ञाता राजा ने आत्मपुत्राय = अपने पुत्र, घनस्थाय = घनरथ के लिये, राज्यं = राज्य, दत्वा = देकर, ( च = और), वनं = वन को, गत्वा = जाकर, तपोदीक्षां तप करने के लिये मुनिदीक्षा को, जग्राह = ग्रहण कर लिया। श्लोकार्थ विरक्त होने पर परमार्थ के ज्ञाता उस राजा ने अपने पुत्र
घनरथ के लिये राज्य देकर और वन को जाकर तपश्चरण हेतु मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली ।
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उस राजा ने उन्हें प्रणाम किया उनकी पूजा की और मुनिधर्म को पूछा।
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= उन,
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एकादशाङ्गभृद्धीरो भावयित्वा सुभावनाः । बबन्ध तीर्थकृद्गोत्रं कर्मासौ स्वतपोबलात् ||६|| अन्वयार्थ स्वतपोबलात् = अपने तपश्चरण के बल से असौ धीरः = धैर्यवान्, एकादशाङ्गभृत् = ग्यारह अगों को धारण करने वाले मुनिराज ने सुभावनाः = दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं को, भावयित्वा = भाकर, तीर्थकृत् तीर्थङ्कर नामक, गोत्रं = उन्चपुण्य, कर्म = कर्म को, बबन्ध = बांधा |
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