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श्री सम्मेदशिखर माहारम्य श्रृणु - सुनो, ये = जो, जीवाः = जीव, गतिचतुष्टये = चार गतियों में अर्थात् मनुष्य, देव, तिर्यञ्च और नरक इन चारों अवस्थाओं में, (वर्तते = रहते हैं), ते = वे, संसारिणः = संसारी जीव. (भवन्ति = होते हैं), अत्र = इनमें, भव्याः = भव्यजीव, नूनं = निश्चित ही, मोक्षपदं = मोक्षपद को, प्राप्नुवन्ति = प्राप्त करते हैं, (इति = इसमें), संशयः = सन्देह, न = नहीं है, सम्मेद्गगिरियात्रातः = सम्मेदशिखर की यात्रा करने से, सत्वरं = जल्दी ही, मुक्तिः = मोक्ष लक्ष्मी, आप्यते = प्राप्त
की जाती है। श्लोकार्थ – राजा की बात सुनकर मुनिराज उससे बोले - हे राजन! सुनो,
जो जीव चतुर्गति में वास करते हैं वे संसारी जीव हैं उन जीवों में जो भव्य हैं वे अवश्य ही मोक्षपद को प्राप्त कर लेते हैं इसमें कोई सन्देह नहीं है। सम्मेदशिखर की यात्रा करने
से जल्दी ही मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त कर ली जाती है। सुगम मुक्तिमार्ग च इति ज्ञात्या जहर्ष सः । एकाव॒दं चतुरशीतिकोटिसस्मितजीवकैः ।।६।। महितः संघभक्तोऽसौ सम्मेदगिरिमभ्यगात् । तत्राभ्ययन्दत नृपः तत्कूटं वीरसंकुलम् । ७७ ।। संपूज्यविधिवद् भक्त्या जैनी जग्राह दीक्षिकाम् । एकार्बुदनवप्रोक्तैः कोटिभव्यैः समं गतः ।।७८।। शास्त्रोक्तविधिना घोरं तपः कृत्वाऽष्टकर्मणाम् ।
नाशं कृत्वा हि कूटात्ते सानन्दं मुक्तिमाप्नुवन् ।७६।। अन्वयार्थ – च = और, इति = इस प्रकार, सः = वह सुप्रभ राजा,
मुक्तिमार्ग = मुक्ति के मार्ग को, सुगम = सुगम, ज्ञात्वा = जानकर, जहर्ष = हर्षित हुआ, संघभक्तः = मुनि आर्यिका आदि संघों की गक्ति में तत्पर, असौ = वह, एकार्बुद = एक अरब, चतुरशीतिकोटिसस्मितजीवकैः = चौरासी करोड़ प्रसन्नचित्त जीवों के, सहितः = साथ, सम्मेदगिरिम् = सम्मेदशिखरपर्वत को, अभ्यगात् = गया, तत्र = वहाँ, नृपः