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द्वादश:
सः 1
सुधर्माख्यं निशम्याथ गतस्तद्वन्दनाय अभिवन्द्य स्तुतिं कृत्वा पपृच्छ च मुनिसत्तमम् । । ७२ ।। क्व गामिनो मुनीशान भव्याः संसारिणस्तथा । अधिरं मोक्षसल्लब्धिः कथं वद महामुने ।। ७३ ।।
अन्वयार्थ
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एकदा = एक दिन, सः = वह, तपस्वी तपस्वी, गुणगंभीर: गुणों के कारण गंभीर, साहसी, वीरवन्दितः = वीरों द्वारा बन्दनीय, धैर्यवान् = धैर्यशील, भूपः राजा, सुप्रभः सुप्रग आगतं - आये हुये सुधर्माख्यं = सुधर्म नामक मुनिं मुनिराज को, निशम्य = सुनकर, तद्वन्दनाय उनकी बन्दना के लिये, गतः = गया, अथ = उसके बाद, मुनिसत्तमं भुनिवर्य को अभिवन्द्य प्रणाम करके, च = और, स्तुतिं कृत्वा = उनकी स्तुति करले, पपच्छ पूछा, मुनीशानः = हे मुनीश !. संसारिणः - संसारी भव्याः = भव्य जीव, क्व = कहाँ, गामिनः = जाने वाले, (भवन्ति = होते हैं) तथा और, महामुने = हे महामुनि, वद = कहिये, अचिरं शीघ्र मोक्षसल्लब्धिः = मोक्ष की प्राप्ति, कथं कैसे (भवति = होती है)।
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तच्छ्रुत्वा मुनिराहैनं श्रृणु भूपतिसत्तम । संसारिणोऽत्र ये जीवास्ते वै गतिचतुष्टये । । ७४ ।। भय्या मोक्षपदं नूनं प्राप्नुवन्ति न संशयः । सम्मेदगिरियात्रातः
सत्यरं मुक्तिराप्यते । ।७५ ||
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अन्वयार्थ तच्छ्रुत्वा
श्लोकार्थ - एक दिन वह तपस्वी गुणगंभीर, साहसी, प्रतापी, वीरों द्वारा पूज्य, धैर्यशील राजा सुप्रभ नगर में मुनिराज सुधर्म आये हैं - ऐसा सुनकर उनकी वन्दना के लिये गया। वहाँ पहुंच कर उसने उनको प्रणाम करके और उनकी स्तुति करके पूछा - हे मुनीश ! संसारी भव्य जीव कहाँ जाने वाले होते हैं? तथा हे महान् महात्मा! मुझे बताइये जल्दी ही मोक्ष की प्राप्ति कैसे होती है?
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राजा की बात सुनकर मुनिः = मुनिराज ने एनं - इस राजा को, आह कहा, भूपतिसत्तम हे श्रेष्ठ राजन्!,
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