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________________ ३५२ श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य = आषाढ़शुक्ल अष्टमी के दिन, निर्वाणपदम् = मोक्षपद को, आप्तवान् = प्राप्त कर लिया । श्लोकार्थ – तभी जयकार करता हुआ इन्द्र वहाँ आया और विमलनाथ प्रभु को प्रणाम करके उपस्थित हो गया। उसके बाद जगत् के हितकारी बन्धु वह राजा देवों द्वारा लायी गयी देवदत्त नाम वाली पालकी में चढ़कर सहेतुक बन में चले गये और माघशुक्ला चतुर्थी को जन्म नक्षत्र में उन राजा ने एक हजार राजाओं के साथ नियम पूर्वक मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली वहाँ ही उन्हें अन्तर्मुहूर्त में चौथा मनःपर्ययज्ञान हो गया। दूसरे दिन वह मुभिमान मिया के लिये नन्दन पुर गये। उन मुनिराज को आया हुआ देखकर जय नामक श्रेष्ठ राजा ने इन मुनिराज के लिये आहार देकर पांच आश्चर्य प्राप्त किये। उसके बाद वह मुनिराज प्रभु ने तीन वर्ष तक का मौन व्रत लेकर एकान्त में आसनस्थ होते हुये कठिन तपश्चरण किया। तपश्चरण करने पर सभी घातिकर्मों का क्षय हो जाने पर वह माघशुक्लाषष्ठी को जम्बूवृक्ष के नीचे केवलज्ञानी हो गये। केवलज्ञान हो जाने के बाद वह प्रभु इन्द्रादि द्वारा रचित समवसरण में अपनी उज्ज्वल प्रभा से युवा सूर्य के समान सुशोभित हुये। उनकी पूजा में लगे हुये प्रमाणोक्त संख्या में मन्दरसेन आदि गणधर और अन्य मुनिजन, देवता, मनुष्य आदि अपने -अपने बारहों कोठों में स्थित हो गये। तभी यथार्थ रूप से जिज्ञासु भव्यजीवों द्वारा पूछे गये भगवान् ने दिव्यध्वनि को किया। इस प्रकार दिव्यध्वनि से भव्यजीवों के समूह को हर्षित करते हुये उन्होंने अनेक पुण्य क्षेत्रों में विहार किया। अन्त में जब मव्यजनों से पूजित होते हुये महानन्द के सिन्धु भव्यजीवों के सम्राट् भगवान् ने अपनी वर्तमान आयु एक माह शेष जान ली तो वे दिव्यध्वनि रोककर सम्मेदशिखर पर्वत पर आ गये। वहाँ वीर संकुलकूट से एक हजार मुनियों से युक्त, मोह के विजेता और शुक्लध्यान में संलग्न उन प्रभु ने आषाढ शुक्ला अष्टमी को निर्वाण पद प्राप्त कर लिया।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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