SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 365
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वादश: ३४६ = = देव, स्वमागत्य = स्वयं आकर, जगत्पतिं = जगत् के स्वामी की, प्रशस्य प्रशंसा करके, विविधैः = अनेकविध वाक्यैः वचनों से, मुदं = प्रसन्नता या हर्ष को, आपुः प्राप्त किया, दीक्षणात् यह जानकर देवों के साथ, देवराजः - देवराज इन्द्र, अपि = भी, प्रभोः = प्रभु के, अन्तिकम् समीप में, आगतः - आ गया । श्लोकार्थ एक दिन हिमपटलों को देखकर वह उसी समय विरक्त हो गया, प्रत्यक्ष नष्ट होते हुये हिम खण्डों के समान यह जगत् भी प्रत्यक्ष नष्ट है - ऐसा विचारकर देह और भोगों से विरक्त हुआ। उसी समय लौकान्तिक देवों ने स्वयं आकर जगत् के स्वामी की प्रशंसा की और अनेक प्रकार से वचन बोलकर हर्ष को प्राप्त हुये। यह जानकर देवों सहित इन्द्र भी वहाँ प्रभु के निकट आ गया । 'उच्चरञ्जयनिर्घोषं प्रवन्ध विमलं प्रभुं । देवोपनीतां शिविकां देवदत्ताभिधां ततः ।। ४५ ।। समारुह्य जगद्बन्धुः सहेतुकवनं ययौ । माघशुक्लचतुर्थ्यां स जन्मर्क्षे क्षितिनायकैः ।। ४६ ।। सहस्रसंमितैस्सार्धं विधिवद्दीक्षितोऽभवत् । अन्तर्मुहूर्ते तत्रैव चतुर्थज्ञानभागभूत् ।।४७ द्वितीयेऽनि स भिक्षायै नन्दनपुरमभ्यगात् । तं सभागतमालोक्य जयाख्यो नृपसत्तमः ||४८ || आहारमस्मै पंचासौ तत्त्वाश्चर्याण्यवाप च । त्रिवर्षमौनमास्थाय ततः स मुनिराट् प्रभुः । १४६ ।। महाघोर तपस्तेपे विविक्तासनसंस्थितः । घातिकर्मक्षयान्माघशुक्लषष्ठ्यां महाप्रभुः ||५० ॥ जम्बूवृक्षतले सोऽभूत् केवलावगमी तदा । ततः समवसारेऽसौ चकादिसुरनिर्मिते ।। ५१ ।। विभ्राजमानप्रभया हि तरुणार्क इवाबभौ । ततः मन्दरसेनाद्या यथासंख्या प्रमाणिताः ।। ५२ ।। =
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy