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एकादशः
जम्बूमति शुभे क्षेत्रे भारते चार्यखण्डे । विषये नलिनास्येतिरम्यं कल्पपुरं महत् ।।६६ ।। नृप आनन्दसेनोऽभूत् राझी विजयसेनिका । सती लक्षणसम्पन्ना शरच्चन्दनिभानना ||७०।। तया सह स धर्मात्मा स्वपूर्वकृतपुण्यतः ।
अभुञ्जत परं सौख्यं धर्मो हि सुखकारणम् ।।७१।। अन्वयार्थ – जम्बूमति = जम्बू वृक्ष वाले, द्वीपे = द्वीप में, शुभे = सुन्दर,
भारते - भरत, क्षेत्र = क्षेत्र में, आर्यखण्डके = आर्यखण्ड में. नलिनाख्ये = नलिन नामक, विषये = देश में, अतिरम्यं = अत्यधिक मनोहर, महत् = विशाल. कल्पपुरं = कल्पपुर नामक नगर, (आसीत् -: था). (तत्र - उस नगर में), नृपः आनन्दसेनः = राजा आनन्द सेन, च = और, राज्ञी = रानी. सती = पतिव्रता, लक्षणसम्पन्ना = शुभलक्षणों से युक्त, शरच्चन्द्रनिभानना = शरद् ऋतु के चन्द्रमा के रान मुख वाली, विजयसेनिका = विजयसेनिका, अभूत् = थी, तया = उस रानी के. सह = साथ, सः = उस, धर्मात्मा = धर्मशील राजा ने, स्वपूर्वकृतपुण्यतः = अपने पूर्वसंचितपुण्योदय से, परं - उत्कृष्ट, सुखं = सुख को, अभुजत = भोगा, धर्मः - धर्म, हि = ही, सुखकारणम् = सुख का कारण, (अस्ति
श्लोकार्थ – जम्बूद्वीप के सुन्दर भरतक्षेत्र में आर्यखण्ड के नलिन नामक
देश में अत्यधिक मनोहर और विशाल नगर कल्पपुर था जिसमें राजा आनन्दसेन और रानी पतिधर्म का पालन करने वाली, शुभलक्षणों से युक्त और शरद ऋतु के चन्द्रमा के समान मुख वाली विजयसेनिका थी। उस रानी के साथ उस धर्मात्मा राजा ने अपने पूर्व सञ्चित पुण्य कर्मो के उदय से उत्कृष्ट सुखों को भोगा। सचमुच, धर्म ही सुख का कारण
होता है। एकदाप्रवने श्रुत्वा गुणभदं समागतम् । स्वामिनं शीलसम्पन्नं द्रष्टुं केवलिनं ययौ ।७२।।