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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य अन्वयार्थ - तत्र = उस समवसरण में, यथोक्तैः = जैसे कहे गये हैं वैसे,
सर्वकोष्ठगैः = सारे कोठों में स्थित, कुन्थुसेनादिभिः = कुन्थुसेन आदि द्वारा, स्तुतः :- स्तुति किये जाते हुये, सम्पूजितः = प्रशंसा से पूजित होते हुये, देवः = भगवान्, स्वतेजोभिः = अपने तेज पुञ्ज से, व्यभात्तराम् = अतिशय
शोभायमान हुये। श्लोकार्थ - समवसरण जिस प्रकार कहे गये हैं वैसे ही सारे कोठों में
स्थित कुन्थुसेनादि के द्वारा स्तुत और संपूजित भगवान् अपने
तेजपुञ्ज से अतिशय शोभा को प्राप्त हुये। सम्पृष्टोऽयं गणेन्द्रायैस्तत्त्वं जिज्ञासुभिस्तदा ।
यक्रे च तत्त्वव्याख्यानं सार्वं सर्वप्रकाशकम् ।।६।। अन्वयार्थ – यदा = जब, तत्वं = तत्व, जिज्ञासुभिः = जिज्ञासु, गणेन्द्राद्यैः
- गणधरादिकों द्वारा, अयं = यह भगवान, सम्पृष्टः = पूछे गये, तदा -- तब, सः = भगवान् ने, सार्वं = सभी पदार्थों से सम्बन्धित, सर्वप्रकाशकम् = सभी का प्रकाशन करने वाला,
तत्त्वव्याख्यानं = तत्व का व्याख्यान, चक्रे = किया। श्लोकार्थ – तभी तत्त्व को समझने के जिज्ञासु गणधरादिकों द्वारा यह
भगवान् पूछे गये तब भगवान् ने सभी पदार्थों के तत्त्व को
प्रकाशित करने वाला सारभूत व्याख्यान किया। हर्षयन् दिव्यनि?षात् सर्वांस्तत्त्वव्ययस्थितान् ।
व्याहरत्पुण्यदेशेषु परमानन्दसागरः ।।१।। अन्वयार्थ – दिव्यनिर्घोषात् = दिव्यध्वनि से, सर्वान् = सभी, तत्त्वव्यवस्थितान
= तत्व में व्यवस्थित है बुद्धि जिनकी अर्थात् तत्त्वजिज्ञासुओं को, हर्षयन् = प्रसन्न करते हुये, परमानन्दसागर: - परम आनन्द के स्वामी भगवान् श्रेयांसनाथ ने, पुण्यदेशेषु = पुण्य
देशों में, व्याहरत् = विहार किया। गेकार्थ – तत्त्व में व्यवस्थित है बुद्धि जिनकी ऐसे सभी तत्त्वजिज्ञासुओं
को अपनी दिव्यध्वनि से हर्षित करते हुये परम आनंद के सागर भगवान् श्रेयांसनाथ ने सभी पुण्यदेशों में विहार किया।