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एकादश:
तपोऽग्निज्वालया तदा ।
घातिकर्ममहारण्यं भस्मीचक्रे ततो
मोहशत्रुक्षयमपि व्यधात् ।। ५६ ।।
अन्वयार्थ तदा = तब तपोऽग्निज्वालया = तपः रूप अग्नि की ज्वालाओं से, घातिकर्ममहारण्यं घातिकर्म रूप भयंकर वन को भरम कर दिया, ततः = उसके बाद, मोहशत्रुक्षयम् = मोह रूप शत्रु का क्षय भी, व्यधात् कर दिया।
श्लोकार्थ - भीषण तपश्चरण करने पर उन मुनिराज ने तपश्चरण स्वरूप अग्नि ज्वालाओं से घातिकर्मों के विशाल वन को जला दिया उससे मोहशत्रु का भी क्षय कर दिया गया । अमायां माघमासस्य तिन्दुकदुमतले प्रभुः । लेभे स केवलज्ञानं मोक्षसंप्राप्तिकारणम् ||५७ ।। अन्वयार्थ माघमासस्य माघ मास की, अभार्या अमावस्या के दिन. तिन्दुकद्रुमतले ते दूँ वृक्ष के नीचे, सः उन, प्रभुः = भगवान् ने, मोक्षसम्प्राप्ति कारणं मोक्ष प्राप्त करने में कारण स्वरूप, केवलज्ञानं - केवलज्ञान को लेभे प्राप्त कर लिया। श्लोकार्थ माघ माह की अमावस्या को तेदूँ वृक्ष के नीचे मुनिराज श्रेयांसनाथ ने मोक्ष के कारण स्वरूप केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया ।
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श्लोकार्थ
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देवेन्द्रः सार्धं निखिलदेवतैः ।
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तदैवागत्य प्रभोश्च समवसारमसौ रचयत्यमरोद्भुतं स्म ।। ५८ ।। अन्वयार्थ - तदैव = उस ही समय, निखिलदेवतैः सम्पूर्ण देवताओं के. सार्धं = साथ.. आगत्य - आकर, असौ - उस देवेन्द्रः . = देवेन्द्र ने प्रभोः केवलज्ञानी भगवान् का अमरोदद्भुतम् = देवों के लिये भी आश्चर्यकारी, समवसारम्
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समवसरणं,
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रचयति स्म = रचा।
उस ही समय सभी देवताओं के साथ आकर उस इन्द्र ने भगवान् का देवों को भी आश्चर्यकारी समवसरण रच दिया । कुन्थुसेनादिभिस्तत्र यथोक्तैः सर्वकोष्ठगैः ।
स्तुतः सम्पूजितो देवः स्वतेजोभिर्व्यभात्तराम् ।।५६ ।।