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एकादशः
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से पूर्ण होते हुये वैराग्यपूर्ण सारगर्भित वचनों से उनकी स्तुति
की।
देवेन्द्रोऽपि जयेत्युक्त्वा तत्रागत्यानमत्प्रभुम् ।
देवदेवीगणोपेतः शिरस्सन्धार्य भूतले । ५०।। अन्वयार्थ – देवदेवीगणोपेतः = देव और देवियों के समूहों से युक्त. देवेन्द्रः
= इन्द्र ने, अपि = भी, जय = जय हो, इति = ऐसा, उक्त्वा = कहकर, तत्र = वहीं, आगत्य = आकर, गूतले = पृथ्वी पर, शिरः = मस्तक को, सन्धार्य = लगाकर, प्रभु = प्रभु को,
अनमत् -- प्रणाम किया । श्लोकार्थ – देवन्देवियों के समूह से सहित देवेन्द्र ने भी जय शब्द का
उच्चारण करके और वहाँ आकर पृथ्वी पर सिर लगाकर भगवान् को नमस्कार किया। देवोपनीता विमलप्रभाख्यां शिक्षिका प्रभुः ।
समासस्य सवैषाशु सुकदनं यदी ।।५१।। अन्ययार्थ – तदैव = तभी, प्रभुः = प्रभु, देवोपनीता = देवों द्वारा लायी
गयी, विमलप्रभाख्या = विमलप्रभ नामक, शिबिकां = पालकी पर, समारुह्य = चढ़कर, आशु = शीघ्र ही, सहेतुकवनं =
सहेतुक वन को, ययौ = चला गया । श्लोकार्थ - तभी प्रभु देवों द्वारा लायी गयी विमलप्रभ नामक पालकी पर
चढ़कर शीघ्र ही सहेतुक वन को चला गया। तत्र दीक्षाविधानेन सिद्धान्समभिवन्द्य सः । कृष्णैकादशिकायां च फाल्गुने श्रावणोडुनि ||२|| जैनी मुक्तिनिदानां सद्दीक्षा जग्राह तत्ववित् ।
सहस्रप्रमिलैर्भूपैः सार्धं भूत्वावधीक्षितः ।।५३।1 अन्ययार्थ – तत्र = उस सहेतुकवन में, फाल्गुने = फाल्गुन माह में,
कृष्णैकादशिकायां = कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन, श्रावणोडुनि = श्रावण नक्षत्र में, अवधीक्षितः = अवधिज्ञान से जानते हुये, मूत्वा = होकर, तत्त्ववित् = तत्त्ववेत्ता-तत्वज्ञानी, सः = उन प्रभु ने, सिद्धान = सिद्धों को, अभिवन्ध = प्रणाम