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________________ ३२४ श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य = खिले हुये के समान, फलितान = फलयुक्त, नित्यशः = प्रतिदिन, वीक्ष्य = देखकर, चऔर, कदाचित् = कभी, पुनः = फिर से, तान = उन वृक्षों को, एव = ही, सः = उस राजा ने, विवर्जितान् = फल और विकसित शोभा से रहित. अपश्यत् = देखा। श्लोकार्थ – बसन्त ऋतु में प्राकृतिक सौन्दर्य को देखते हुये राजा ने एक दिन प्रतिदिन फूलों और फलों से युक्त वृक्षों को देखकर किसी समय उन्हीं वृक्षों को फल और फूलों से रहिल देखा। एवमेव जगत्सर्वमिति मत्वा स्वमानसे । विरक्तोऽभूत्तदा श्रेयान् संसाराद् दुःखवारिधेः ||४८11 अन्वयार्थ – तदा = तब, सर्व = सारा, जगत् = संसार, एवं = ऐसा, एव = ही, इति = इस प्रकार, मत्त्वा = मानकर, स्वमानसे = अपने मन में, श्रेयान् = तीर्थङ्कर श्रेयांसनाथ,दुःखवारिधेः = दुख के समुद्र स्वरूप, संसारात = संसार से विरक्तः .. विरक्त, अभूत = हो गया। श्लोकार्थ – तम्ब अर्थात् वृक्षों को फूल आदि से शून्य देखकर राजा श्रेयांस सारे जगत् को भी ऐसा ही मानकर दुःखों के समुद्र स्वरूप संसार से विरक्त हो गये। सारस्वतास्तदागत्य तं दृष्ट्या स्फारितेक्षणः । तुष्टुयुर्विविधैर्वाक्यैः वैराग्यसारगर्भितैः ॥४६।। अन्वयार्थ – तदा = तब अर्थात् राजा को वैराग्य होने पर. (तत्र = वहाँ), आगत्य = आकर, (च = और), तं = उसको, दृष्ट्वा = देखकर, स्फारितेक्षणाः = प्रस्फुट नेत्रों वाले, सारस्वताः = सारस्वत जांति के लौकान्तिक देवों ने, विविधैः = अनेक प्रकार के, वैराग्यसारगर्भितैः = वैराग्य के सार तत्त्व और महत्त्व को बताने वाले. वाक्यैः = वाक्यों से. तुष्टुवुः = स्तुति की। श्लोकार्थ - राजा के वैराग्य को प्राप्त होने का समाचार जानकर सारस्वत जाति के लौकान्तिक देवों ने वहाँ आकर विस्फारित नेत्रों
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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