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एकादश:
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= आश्चर्यपूर्ण चमत्कारिक, फलं फल को शुन्वा = सुनकर, दैवतम् = देव से तीर्थकर के रूप में आये जीव को, गर्भे गर्भ में, सन्धार्य: = धारण करके, देवी = वह रानी, मन्दिर महल में, महासुकृतभूः इव महापुण्यों की भूमि के समान, रराज = सुशोभित होने लगी। ।
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श्लोकार्थ – तभी स्वच्छ जल से केश पर्यन्त अपने मुख को धोकर वह रानी पति के पास गयी और स्वप्नविषयक फल को ध्यान से सुनने लगी । स्वप्नों के फल को सुनकर तथा तीर्थङ्कर बालक को गर्म में धारण कर वह रानी महा पुण्यों की भूमि के समान महल में सुशोभित हुई ।
दशमे मासि फाल्गुणकृष्णैकादश्यां चोत्तमे । भूपगृहे जनिं लेभे सोऽयं तेजसां निधिः ।। २७ ।।
अन्वयार्थ
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च = और दशमे दसवाँ मासि = माह होने पर, फाल्गुणकृष्णैकादश्यां फाल्गुण कृष्ण एकादशी के दिन, उत्तमे = उत्तम. भूपगृहे = राजा के घर में, सः उस, तेजसां = तेजों का, निधिः पुञ्ज स्वरूप, अयं = इस बालक ने, जनि = जन्म, लेभे = प्राप्त किया।
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श्लोकार्थ - गर्भकाल पूरा होने से दसवाँ माह आने पर फाल्गुन कृष्णा ग्यारस के दिन तेजोनिधि इस बालक ने राजा के उत्तम गृह में जन्म प्राप्त किया ।
त्रिज्ञानलोचनोदद्भासी
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शुभलक्षणदीपितः । तपोनिधिः प्रसन्नात्मा भ्राजते स्म रविर्यथा ||२८|| अन्वयार्थ – शुभलक्षणदीपितः = शुभलक्षणों से सुशोभित, त्रिज्ञानलोचनोद्भासी तीन ज्ञान रूपी नेत्रों से जानने वाले, प्रसन्नात्मा = प्रसन्न स्वरूप वाले, तपोनिधिः तपोनिधि प्रभु, (तथैव = वैसे ही), भ्राजते स्म = शोभायमान हुये, यथा - जैसे, रविः = सूर्य ।
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श्लोकार्थ -- शुभलक्षणों से सुशोभित, तीन ज्ञान अर्थात् मति श्रुत और अवधिज्ञान रूपी नेत्रों से जानने वाले प्रसन्नता से परिपूर्ण, तपोनिधि प्रभु वैसे ही प्रकाशमान हुये जैसे रवि होता है।
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