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श्री सम्मेदशिखर माहाल्य
आश्चर्य से पूर्ण सभी लोग मानने लगे कि राजा के भवन में भविष्य में बहुत कुछ शुभ होगा ।
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ज्येष्ठे कृष्णदले षष्ट्यां श्रवणर्क्षे नृपप्रिया । निशावसाने साऽपश्यत् स्वप्नान् षोडशमन्दिरे ||२३|| स्वप्नान्ते सा करटिनं मत्तं स्वमुखपङ्कजे । प्रविशन्तं समालोक्य प्रबुद्धा विस्मिताऽभवत् ।। २४ ।। अन्वयार्थ ज्येष्ठे जेठ के महिने में, कृष्णदले कृष्णनया में, पाठ्य षष्ठी के दिन, श्रवण = श्रवणनक्षत्रा में सा नृपप्रिया राजा की, उस रानी ने मन्दिरे अपने महल में, निशावसाने = रात्रि के अंतिम प्रहर में षोडश स्वप्नों को अपश्यत् देखा, स्वप्नान्ते स्वमुखपङ्कजे = अपने मुख कमल करते हुये, मत्तं = उन्मत्त करटिनं
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देखकर, सा = वह रानी प्रबुद्धा जाग गयी, (च = और), विस्मिता - आश्चर्यचकित, अभवत् = हो गई।
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सोलह स्वप्नान् = स्वप्न के अन्त में, में, प्रविशन्तं = प्रवेश हाथी को समालोक्य
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श्लोकार्थ - जेठ कृष्णा षष्ठी को श्रवण नक्षत्र में राजा की उस रानी ने अपने महल में रात्रि के अंतिम प्रहर में सोलह स्वप्नों को देखा । स्वप्नों को देखने के बाद अपने मुख कमल में प्रवेश करते हुये उन्मत्त हाथी को देखकर वह रानी जाग गई और आश्चर्यचकित हुई।
तदैव
मुखमाकेशं संमा विमलैर्जलैः ।
गता पतिसमीपं सा स्वश्रौषीत्स्वाप्निकं फलम् ||२५||
सन्धार्य दैवतम् ।
रराज
श्रुत्वाद्भुतं फलं तेषां गर्भे मन्दिरे देवी महासुकृतभूरिव ||२६|| अन्वयार्थ - तदैव = तभी, विमलैः - स्वच्छ, जलैः - जल से, आकेशं बालों तक, मुखं = मुख को संमा धोकर, सा = वह रानी पतिसमीपं = पति के पास, गता = और), स्वानिकं स्वप्न स्वप्न सम्बन्धी, फलं स्वश्रौषीत् = अच्छी तरह से सुना, तेषां
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गयी, (च
= फल को, उनका अद्भुतं