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एकादेशः
श्लोकार्थ
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उस राजा की नंदा नाम की रानी निश्चित रूप से अपने सद्गुणों के कारण पति के लिये प्राणों के समान प्रिय और सभी शुभ लक्षणों से परिपूर्ण थी। वह धर्मात्मा राजा उस शीलवती रानी के साथ राजभवन में उसी प्रकार रमण करता था जैसे इन्द्र शची के साथ स्वर्ग में रमण किया करता था । ज्ञात्या तयोर्गृहे देवागमनं भाविनं तथा । शक्राज्ञया धनाधीशो वसुवृष्टिं चकार सः ।।२१।। तां दृष्ट्वा विस्मिताः सर्वे सन्ततापातनिर्भराम् । अन्वमन्यन्त भवने राज्ञो भावि शुभं महत् ।। २२ ।। अन्वयार्थ तयोः = उन राजा-रानी के गृहे = घर में, भाविनं होने वाला, देवागमनं तीर्थङ्कर का आगमन, ज्ञात्वा = जानकर, सः उस, धनाधीशः कुबेर ने, शक्राज्ञया - इन्द्र की आज्ञा से बसुवृष्टिं मणिरत्नों की वर्षा को चकार = किया, सन्ततापातनिर्भरां = निरन्तर गिराते हुये रत्नों से भरी, तां - उस वर्षा को दृष्ट्वा = देखकर, सर्वे = सभी लोग, विस्मिताः = आश्चर्यचकित हुये, राज्ञः राजा के, भवने = भवन में, भावि भविष्यत्काल में, महत् = बहुत, शुभं
आगे
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= शुभ, ( स्यात् = होगा ). ( इति = ऐसा ), अन्वमन्यन्त = मानने लगे ।
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समान प्रिय, (च = और), शुभलक्षणलक्षिता = शुभ लक्षणों से परिलक्षित, अभूत् = थी।
शीलसम्पन्नया = शीलाचरण से सम्पन्न, तया = उस रानी के. सह = साथ, सः वह, धर्मात्मा = धर्मप्रिय राजा, राजगृहे = राजभवन में तथा = उसी तरह, रेमे रमण करता था, इव = यथा, देवराड् = देवेन्द्र, शच्या = शची के साथ, त्रिदिवे = स्वर्ग में (रेमे = रमण करता था) |
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श्लोकार्थ उन दोनों राजा रानी के घर में भावि तीर्थकर के आगमन को जानकर इन्द्र की आज्ञा से उस कुबेर ने रत्नों की बरसात कर दी। निरन्तर गिराते हुये रत्नों भरी उस वर्षा को देखकर