________________
श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य
=
यस्माच्छीतलनाथ उत्तमतपः तेजः कृशानुज्वलज्वालासम्परिदग्धकर्मविपिनः सिद्धालयेशोऽभवत् । ध्यानाद्वन्दनतो हि यस्य मनुजः कैवल्यपात्रं भवेत् । तं विद्युद्वरकूटमुत्तमतरं भक्त्या प्रवृंदामहे | १६८ || अन्वयार्थ – उत्तमतपः तेजः कृशानुज्वलज्वालासम्परिदग्धकर्मविपिनः उत्तम तप के तेज रूपी अग्नि की प्रज्वलित ज्वालाओं में पूर्ण रूप से दग्ध कर दिया है कर्म रूपी वन को जिसने ऐसे, शीतलनाथ: - शीतलनाथ भगवान्, यस्मात् = जिस कूट से, सिद्धालयेश: = सिद्धालय के स्वामी, अभवत् = हुये। मनुजः मनुष्य, यस्य = जिसके ध्यानात्
= ध्यान से,
J
वन्दनतः = वन्दना से कैवल्यपात्रं = निर्वाण- मोक्ष का पात्र, भवेत् = हो जावे, तं = उस उत्तमतरं श्रेष्ठतर, विद्युद्वरकूटं विद्युवर कूट को भक्त्या = भक्ति से, प्रवृंदामहे = हम सब प्रणाम करते हैं ।
=
1
३०८
-
श्लोकार्थ उत्तम तपश्चरण से प्रस्फुरित तेज रूपी अग्नि की प्रदीप्त ज्वालाओं में पूर्णतः दग्ध कर दिया है कर्म वन जिन ने ऐसे शीतलनाथ भगवान् जिस विद्युद्वरकूट से सिद्धालय के स्वामी हुये अर्थात् निर्वाण को प्राप्त हुये तथा मनुष्य जिस कूट की वन्दना करने से एवं ध्यान करने से मोक्ष का पात्र हो जाता है हम सब उस श्रेष्ठतर विद्युहर कूट को भक्तिभाव से प्रणाम करते हैं।
[ इति दीक्षितब्रह्मदेवदत्तविरचिते सम्मेदशैलमाहात्म्ये श्रीशीतलनाथतीर्थेशवृतान्तासहितं विद्युद्वरकूटवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः समाप्तः । ] (इस प्रकार दीक्षित ब्रह्मदेवदत्त विरचित सम्मेदशैलमाहात्म्य नामक काव्य में श्रीशीतलनाथ तीर्थकर के वृतान्त सहित विद्युद्वर कूट का वर्णन करने वाला दशम अध्याय समाप्त हुआ । }