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दशमः
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श्लोकार्थ – तभी मव्यजीवों द्वारा पूछे गये उन महाप्रभु तीर्थङ्कर
शीतलनाथ ने सारे तत्त्वों का ज्ञान कराने वाला और अमृत बरसाने वाला दिव्य उदघोघ याने धर्मोपदेश करते हुये व हाव विलास सहित जयध्वनि को सुनते हुये सभी पुण्यक्षेत्रों में
अपनी इच्छा से अर्थात् स्वतंत्र वृत्ति से विहार किया। एकमासायशिष्टायुः सम्मेदाख्यधराधरे ।
विद्युद्वराभिधे कूटेऽतिष्ठत् संहृत्य तद्ध्वनिं ।।४६ ।। अन्वयार्थ – एकमासावशिष्टायुः = एक माह है अवशिष्ट आयु जिनकी ऐसे
वह प्रभु शीतलनाथ, तद्ध्वनि = दिव्यध्वनि को, संसृत्य = रोककर, सम्मेदाख्यधराधरे = सम्मेद नामक पर्वत पर, विदरभिः =: 'चक्षुद्धा नाममा, कूर :- सूर पर, अतिष्ठत
= ठहर गये। श्लोकार्थ – एक मास मात्र आयु शेष रहने पर वह प्रभु शीतलनाथ
दिव्यध्वनि को रोककर सम्मेद पर्वत की विद्युद्वर कूट पर ठहर
गये।
श्रावणे मासि शुक्लायां पूणिमायां जगत्पतिः ।
सहस्रमुनिभिस्सा) कैवल्यपदमाप्तवान् ।।४७।। अन्वयार्थ -- श्रावणे = श्रावण, मासि = माह में. शुक्लायां = शुक्लपक्ष की.
पूर्णिमायां = पूर्णिमा के दिन, जगत्पतिः = जगत के स्वामी तीर्थकर शीतलनाथ ने, सहस्रमुनिभिः = एक हजार मुनियों के, साध - साथ, कैवल्यपदं = निर्वाण या मोक्षस्थान को,
आप्तवान् = प्राप्त कर लिया। श्लोकार्थ – श्रावण शुक्ला पूर्णिमा को जगत्पति तीर्थङ्कर शीतलनाथ ने
एक हजार मुनियों के साथ मोक्षपद प्राप्त कर लिया। अष्टादशोक्तकोटीनां कोट्युक्तस्तद्वतः परम् । द्विचत्वारिंशदुक्ताश्च कोट्यो द्वात्रिंशदीरिताः ।।४८|| लक्षास्तद्वद्विचत्वारिंशत्सहस्राण्यतः परम् । शतानि नव पञ्चेति संख्योक्तास्तापसा: गिरौ ।।४।।