________________
२E६
श्री सम्मेदशिखर माहास्य अखिलकलुषराशिध्यंशसनाद्धि प्रवीणम् । सुकृतजलधिचन्द्रं पुष्पदन्त विधासम् ।।१२।। तिमिरगजमहीषवातसंहारसिंहम्।।
मनसि निविऽभक्त्या सुप्रभं कूटमीडे ||६३ ।। अन्वयार्थ – (अहं = मैं), मनसि = मन में, निविडभक्त्या = सघन भक्ति
से, पुष्पदन्ताधिवासं = पुष्पदंत प्रभु के निवास स्थान स्वरूप, सुकृतजलधिचन्द्रं = सुकृत अर्थात् पुण्य के सागर को वृद्धिंगत करने में चन्द्र के समान, तिमिरगजमहीषवातसंहारसिंह = अन्धकारमय अज्ञान रूप बलशाली गजों के झुंड के संहार मैं सिंह सदृशश, अखिलकलुषराशिध्वंसनात् = सम्पूर्ण कलुष राशि अर्थात् कर्मों के ध्वंस में कारण होने से, प्रवीणं = कुशलस्वरूप. सुप्रभ = सुप्रभ नामक. कूट = कूट की, ईडे
-- स्तुति करता हूं। श्लोकार्थ – अपने मन में सघ---घनीभूत अर्थात् अत्यधिक भक्ति होने से
मैं तीर्थड़कर पुष्पवंत की निर्वाणस्थल स्वरूप, पुण्य के सागर को वृद्धिंगत करने में चन्द्रमा समान, अज्ञान स्वरूप अंधकार के प्रतीक काले बलशाली गजों के झुंडों के संहार करने में सिंह के समान और सम्पूर्ण कल्मषों अर्थात् कर्म कालिमा के विनाश में कारण होने से प्रवीण मित्र की तरह सुप्रभ कूट
की स्तुति करता हूं। [इति दीक्षितदेवदतकृते श्री सम्मेदशिखरमाहात्म्ये तीर्थकृत्पुष्पदंतवृतान्तपुरस्सरं सुप्रभकूटदर्शनस्य फलवर्णनं नाम
नवमस्सर्गः समाप्तः। इस प्रकार दीक्षितदेवदत्तरचित श्री सम्मेदशिखरमाहात्म्य नामक काव्य में तीर्थङ्कर पुष्पदंत के वृतान्त को उजागर करता हुआ सुप्रभकूट के दर्शन के फल का वर्णन करने
वाला नौवा सर्ग समाप्त हुआ।