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________________ नवमः २८५ बुद्धि-अज्ञानी, सः = उस श्रेष्ठी ने, मुदा = प्रसन्नता से, सम्मेदं = सम्मेदशिखर की यात्रा करने की, भावयन = भावना करते हुये, अखिलं = सम्पूर्ण. कर्म = कर्म, भस्मीकृत्य = भस्म करके. कैवल्यपदं = केवलज्ञान से प्राप्त निर्वाणपद को, आप = प्राप्त कर लिया। __ श्लोकार्थ ... महालोभी और मंदबुद्धि अज्ञानी होकर भी उस श्रेष्ठी ने प्रसन्नता से सम्मेदपर्वत की यात्रा करने की भावना करते हये सम्पूर्ण कर्मों को भस्म करके मुक्ति पद पा लिया। ईदृक्प्रभावस्सम्मेदकूटोऽयं सुप्रभाभिधः । श्रावणीयो माननीयः सदा वन्द्यो मनीषिभिः !!६०|| अन्वयार्थ - इंदृक्प्रभावः .. ऐसे प्रभाव वाला, अयं = यह, सुप्रभाभिधः = सुप्रभ नाम वाला, सम्मेदकूट: = सम्मेदाचल का कूट, मनीषिभिः = मनीषियों के द्वारा, सदा = हमेशा, वन्धः = वन्दनीय, श्रावणीयः = सुनने-सुनाने योग्य, (च = और), माननीयः = मनन योग्य या आदरणीय, (अस्ति = है)। श्लोकार्थ .- ऐसे अनुपम प्रभाव वाला यह सुप्रभ नामक सम्मेद पर्वत का कूट बुद्धिजीवी-विचारकों द्वारा सदैव सुनने-सुनाने, मनन करने या आदर करने और वन्दना करने योग्य है। वन्दनादेककूटस्य फलमीदृक्प्रकाशितम् | वन्दनात्सर्वकूटानां वक्तव्यं किं पुनर्बुधा ।।६१।। अन्वयार्थ .. एककूटस्य = एक कूट की, बन्दनात = बन्दना से, इदृक = ऐसा, फलं = फल, प्रकाशितम् = बताया गया या प्रकाशित हुआ, सर्वकूटानां = सभी कूटों की, वन्दनात् = वन्दना से. वक्तव्यं = कहने योग्य फल को, पुनः = फिर से, बुधाः = विद्वान् गण, किं = क्या. (भाषेरन् = कहें)। __ श्लोकार्थ - जब एक कूट की वन्दना करने से ऐसा फल प्रकाशित कर दिया गया है तो सभी कूटों की वन्दना करने से कहने योग्य फल क्या बचता है जिसे विद्वज्जन कहें।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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