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________________ २८४ शुभसेनाख्यपुत्राय राज्यं दत्त्वा ततो द्वात्रिंशत्कोटिभव्यैश्च सार्धं चक्रे तपो -- = = कूट = अन्ययार्थ तत्र उस सम्मेद शिखर की यात्रा में सुपभं सुप्रभ नामक कूट पर, गत्वा = जाकर भक्त्या - भक्ति से, अभिनन्दितः = वन्दित की गई, (येन जिस कारण से ) राज्य - राजपाट को च और लौकिक लौकिक यश को, = अनेक प्रकार से, भोगान् = = - = प्राप्य = प्राप्त कर, अनेकशः भोगों को, भुक्त्या भोगकर, नृपः राजा ने, शुभसेनाख्यपुत्राय शुभसेन नामक पुत्र के लिये, राज्यं राज्य, दत्वा = देकर, च = और, ततः = उसके बाद, द्वात्रिंशत्कोटिभव्यैः = बत्तीस करोड भव्य जीवों के सार्धं = साथ, महत् = अत्युग्र, तपः = तपश्चरण, चक्रे - किया । श्री सम्मेद शिखर माहात्म्य नृपः । महत् ।।५७ ।। = -- श्लोकार्थ – सम्मेदाचल की यात्रा में सुप्रभनामक कूट पर जाकर उस राजा ने उसकी कूट की वन्दना की जिससे राज्य एवं लौकिक यश पाकर और अनेक प्रकार के भोग भोगकर बाद में शुभसेन पुत्र के लिए राज्य देकर बत्तीस करोड भव्य जीवों के साथ अत्युग्र तपश्चरण किया । = = केवलज्ञानमासाद्य घातिकर्मक्षयान्मुनिः । स्वसंधसहितो मुक्तिं जगाम भुवि दुर्लभाम् ||६|| अन्ययार्थ घातिकर्मक्षयात् = घातिकर्मों का क्षय हो जाने से केवलज्ञानम् केवलज्ञान को आसाद्य = प्रगट कर या पाकर, 1 = स्वसंघसहितः = अपने संघ के साथ, मुनिः वह मुनि, भुवि = पृथ्वी पर दुर्लभां = दुर्लभ, मुक्तिं = मोक्ष को जगामं = चले गये । श्लोकार्थ - घातिकर्मों का क्षय हो जाने से केवलज्ञान को प्राप्त कर वह मुनिराज अपने संघ सहित मुक्ति को चले गये । महालुब्धोऽपि मंदश्च सम्मेदं भावयन्मुदा । भस्मीकृत्याखिलं कर्म कैवल्यपदमाप सः । । ८६ । । अन्वयार्थ - महालुब्धः - महालोभी, अपि = भी, च = और, मंदः = मंद
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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