SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८० श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य = कलह, आकरोत् = करता था, दा = = वह सेठ), तेन = उसके साथ, कलिं तच. सर्वस्मिन् = सारे, नगरे = नगर में, तस्य = उसकी, अपकीर्तिः = अपयश, प्रसृताः = फैल गयी, कोऽपि = कोई भी, तन्नामोच्चारणां उसके नाम का उच्चारण, अघशङ्कया = पाप की आशंका से, न = व्यधात्: = करता था, एवं च - और इस प्रकार, तस्य = उसके. बहूनि = बहुत दिनानि दिन, अत्र = इसी रूप में व्यतीतानि = बीत गये। नहीं, 1= · = श्लोकार्थ तब अर्थात् मुनिराज के कहने पर पाप से अत्यंत भयभीत और शरीरादि पदार्थों में नश्वरता अर्थात् क्षणिकपने को मानकर वह सोमप्रम मुनिराज से बोला- हे स्वामिन्! मैंने पूर्वजन्म में क्या दान दिया था जिसके फलस्वरूप मुझे यहाँ अन्य लोगों को दुर्लभ कोटिगटत्व प्राप्त हुआ है। उसके उक्त प्रश्न को सुनकर मुनिराज उससे बोले इसी नगर में एक सुखदत्त नामक सेठ हुआ था जो अत्यधिक धन संग्रह से अहंकारी और प्रमादी था। वह लोभ के कारण एक अन्न का दाना भी किसी के लिये नहीं देता था तथा जो दान देने में उद्यत होते थे उन्हें रोकता था। जो भी उसकी बात नहीं मानता था उससे वह कलह करता था। इसलिये तभी सारे नगर में उसकी अपकीर्ति फैल गयी। कोई भी उसके नाम का उच्चारण पाप के डर से नहीं करता था। इस प्रकार इस रूप में ही उसके बहुत सारे दिन बीत गये । - एकदा देवविमानानि निस्सृतानि हि चात्रपथि । तैर्वृष्टी रत्नपुष्पाणां कृता च सुरविमानगैः । १७६ ।। निर्जगाम तदैवासौ लोभाक्रान्तो गृहाद्द्बहिः । तत्राजिताख्यमद्राक्षीत् मुनिं तं प्रति सोऽब्रवीत् । १७७।१ मुने बहुलपीनोऽसि त्वञ्चात्र केन हेतुना । तदा तेन तथा यार्ता कथिता चैव तं प्रति । ७८ ।। लब्ध्वा चाहारलब्धिं हि पीनोस्मि नात्र संशयः । भुक्त्वापि चाल्पमन्नं सः मुनेर्हि संप्रभावतः । ७६ ।।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy