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________________ २७८ श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य शरण के लिये उत्सुक. असौ = वह, मुनिं = मुनिराज को, प्रोवाच - बोला, 'भो स्वामिन् = हे भगवन्, मया = मेरे द्वारा. इदं = यह, कलुषं = पाप, कृतम् = किया गया है। श्लोकार्थ – तब उन विमलवाहन मुनिराज को भक्ति से प्रणाम करके उनकी तीन परिक्रमा करके उनकी शरण में जाने को उत्सुक वह राजा मुनि से बोला- हे भगवन्! मैंने यह कलुष पाप किया मुनिः प्राह तदा राजकुमार शृणु तत्वतः । तपसो भवति राज्यं तत्र मग्नमुखोऽत्र यः ।।६८।। स नारकी भवेन्नूनं त्यक्त्वामी स्वर्गभाक् तदा । क्रमान्मुक्तिपदं गच्छेन्नात्र कार्या विचारणा ||६६ ।। अन्वयार्थ – तदा ८ तभी, मुनिः = मुनिमहाराज, प्राह = बोले, राजकुमार = हे राजकुमार, शृणु - सुनो, तत्त्वतः = यथार्थ में, तपसः = तप से, अत्र - यहीं, राज्य = राज्य, भवति = होता है, तत्र = उस राज्य में, मग्नमुखः = मग्न, संलग्न, (भवति = होता है), सः = वह, नूनं = निश्चित ही, नारकी - नारकी, भवेत् = होचे, अमी - इस राज्य सम्पत्ति को, त्यक्त्वा = छोड़कर, (म्रियते = मरता है), तदा - तब, स्वर्गभाक् = स्वर्ग का पात्र, भूत्वा = होकर), क्रमात् = क्रम से, मुक्तिपदं = मुक्तिपद को, गच्छेत् = जावे, अत्र = यहाँ, विचारणा = तर्क विचार, न = नहीं. कार्या = करना चाहिये। श्लोकार्थ – तभी मुनिमहाराज कहने लगे – हे राजकुमार! सुनो सचमुच में तपश्चरण के फल से ही यहाँ राज्य मिलता है किन्त जो उस राज्य में मग्न हो जाता है वह नारकी हो जाता है तथा जो उस राज्यलक्ष्मी को छोड़कर भरता है वह स्वर्ग का भागी होकर क्रमशः मोक्ष हो जाता है - इस बात में कोई भी संशय नहीं करना चाहिये। सोमप्रभस्तदा प्राह भीतो पापादतीय सः । अनित्यत्वं शरीरादिपरार्थेष्यनुमत्य च ।।७।।
SR No.090450
Book TitleSammedshikhar Mahatmya
Original Sutra AuthorDevdatt Yativar
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Pilgrimage
File Size12 MB
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