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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य एकदा सौधगो देवः दिक्षु सम्पातदृष्टि सः ।
उल्कापालं विलोक्याशु वैराग्यं विश्वतोऽगमत् ।।३।। अन्वयार्थ – एकदा = एक दिन. सौधग: = महल के ऊपर गये हुये, दिक्षु
= दशों दिशाओं में, सम्पातदृष्टिः = डाल दी है दृष्टि जिसने ऐसे. सः = उस, देवः = राजा ने, उल्कापातं - उल्कापात को, विलोक्य = देखकर, आशु = शीघ्र ही, विश्वतः = संसार
से, वैराग्यं = वैराग्य को. अगमत् = प्राप्त किया। श्लोकार्थ – एक दिन वह राजा महल के ऊपर गया हुआ दशो दिशाओं
में दुष्टि डाल रहा था तब उसने उल्कापात को देखकर शीघ्र
ही संसार से वैराग्य को प्राप्त किया। तदा लौकान्तिका देवाः प्रभोस्सम्मुखमागताः ।
तुष्टुवुरतं शुभैर्वाक्यैः तदर्शनसुखान्विताः ||३८|| अन्वयार्थ – तदा = तय अर्थात् राजा को वैराग्य होने पर प्रभोः = प्रभु
के. सम्मुखं = सामने, आगताः आये हुये, तदर्शनसुखान्विताः = उनके दर्शन से सुखी होते हुये. लौकान्तिकाः = लौकान्तिक, देवाः = देवों ने, शुभैः = शुभ, वाक्यैः = वाक्यों
से, तं = उनकी, तुष्टुवः = स्तुति की। श्लोकार्थ – राजा को वैराग्य होने पर प्रभु के सम्मुख आये हुये और उनके
दर्शन से सुखी होते हुये लौकान्तिक देवों ने शुभ वाक्यों द्वारा
उनकी स्तुति की। देवोपनीतां शिबिकामारुह्य स ततः प्रभुः।
तपोवनं जगामाशुं शृण्वन् देवजयध्वनिम् ||३६|| अन्वयार्थ - ततः = उसके बाद, सः = वह, प्रभुः = प्रभु, देवोपनीता =
देवों द्वारा लायी गयी, शिविकां = पालकी पर, आरुह्य = चढ़कर, देवजयध्वनि - देवों द्वारा की गयी जयकार ध्वनि को, शृण्वन् = सुनते हुये, आशु - शीघ्र ही, तपोवन = तपोवन
को, जगाम - चले गये। श्लोकार्थ – उसके बाद वह प्रभु देवों ट्वारा लायी पालकी में चढ़कर और